ज्योतिष - आरोग्य शास्त्र


*जन्मपत्रिका से रोग विचार*

‘मेडिकल एस्ट्रोलॉजी’ फलित ज्योतिष की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत विभिन्न रोग एवं उनके कारणों का ज्योतिष के आधार पर अध्ययन किया जाता है| प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी रोगों से अवश्य पीड़ित होता है| कुछ व्यक्ति किसी विशेष रोग से बार-बार पीड़ित होते हैं, तो कुछ व्यक्ति किसी विशेष समय में अथवा माह में ही प्रतिवर्ष बीमार हो जाते हैं| ये सभी तथ्य प्राय: जन्मपत्रिका में ग्रहों की भावगत एवं राशिगत स्थितियों और दशा-अन्तर्दशा पर निर्भर करते हैं| इसके अतिरिक्त कई बीमारियॉं ऐसी हैं, जो होने पर बहुत कम दुष्प्रभाव डाल पाती हैं, जबकि कुछ बीमारियॉं ऐसी हैं, जो जब भी जातक विशेष को होती हैं, तो बहुत नुकसान पहुँचाती हैं| कई बार ऐसी भी स्थिति उत्पन्न होती है कि बीमारी होती तो है, लेकिन उसकी पहचान भली प्रकार से नहीं हो पाती है| इन सभी प्रकार के तथ्यों का पता जन्मपत्रिका को देखकर लगाया जा सकता है| प्रस्तुत लेख में रोग और रोगों का ज्योतिषीय सन्दर्भ में अध्ययन किया जा रहा है|

जन्मपत्रिका में लग्न भाव स्वयं का प्रतिनिधित्व करता है| यह एक प्रकार से सम्पूर्ण शरीर को दर्शाता है|

षष्ठ भाव रोगों को दर्शाता है और अष्टम भाव आयु का प्रतीक होता है|

इस प्रकार इन तीनों भावों का ही इस सम्बन्ध में प्रमुखता से विचार किया जाता है|

लग्नेश की स्वराशि, उच्चराशि, मूलत्रिकोणराशि और मित्रराशिगत स्थिति केन्द्र अथवा त्रिकोण भाव में होने पर व्यक्ति प्राय: स्वस्थ रहता है, जबकि इसके विपरीत लग्नेश के निर्बल या अशुभ राशि अथवा भाव में होने पर और लग्न पर पाप ग्रहों का दृष्टि प्रभाव होने पर स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है|

षष्ठ भाव में पाप ग्रहों की उपस्थिति और इस पर पाप ग्रहों की दृष्टि रोगों में कमी करती है, जबकि चन्द्र, बुध, गुरु या शुक्र के षष्ठेश होने, षष्ठ भाव में सौम्य ग्रहों की उपस्थिति या इस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होने पर रोगों की अधिकता रहने के योग बनते हैं|

इतना ही नहीं षष्ठेश एवं लग्नेश के मध्य यदि सम्बन्ध बन जाए अथवा षष्ठेश लग्न भाव में स्थित हो जाए, तो भी व्यक्ति को रोगों से ग्रस्त होना पड़ता है|

*रोगों के अन्य प्रमुख कारण .*

रोगों में शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही प्रकार के रोग आते हैं| इसके अतिरिक्त दुर्घटना इत्यादि का सम्बन्ध भी रोग एवं पीड़ा से होता है| रोगादि एवं शारीरिक पीड़ा का प्रारम्भ जन्म से ही हो जाता है| सामान्य रूप से देखें, तो निम्नलिखित स्थितियों का रोगों की उत्पत्ति में प्रमुख स्थान होता है

1. लग्न एवं लग्नेश का अशुभ स्थिति में होना|

2. चन्द्रमा का क्षीण अथवा निर्बल होना अथवा चन्द्रलग्न में पाप ग्रहों का उपस्थित होना|

3. लग्न, चन्द्रमा एवं सूर्य तीनों पर ही पाप अथवा अशुभ ग्रहों का प्रभाव होना|

4. जन्मपत्रिका में शनि, मंगल आदि पाप ग्रहों का गुरु, शुक्र आदि शुभ ग्रहों की अपेक्षा अधिक बलवान् होना|

5. अष्टमेश का लग्न में होना अथवा लग्नेश का अष्टम भाव में उपस्थित होना|

6. लग्नेश की अपेक्षा षष्ठेश का अधिक बली होना|

7. उक्त सभी योगों के अतिरिक्त यदि किसी जातक की जन्मपत्रिका में अरिष्ट योग बनता हो, तो भी जन्म के पश्‍चात् उसे अनेक कष्टों एवं रोगादि का सामना करना पड़ता है|

*रोगों का निर्धारण .*

कोई व्यक्ति किस प्रकार के रोगों से अधिक पीड़ित होगा, इसका निर्धारण सामान्यत: पीड़ादायक ग्रह के आधार पर किया जाता है| जो ग्रह पीड़ादायक होता है, वह अपनी प्रकृति के अनुसार सम्बन्धित रोग या पीड़ा प्रदान करता है| अब प्रश्‍न यह उठता है कि कोई ग्रह रोगप्रदायक बन रहा है अथवा नहीं, इसका निर्धारण कैसे किया जाए? इस सम्बन्ध में निम्नलिखित नियमों को विशेष रूप से देखना चाहिए :

1. षष्ठेश अपनी प्रकृति के अनुसार रोग प्रदान करता है|

2. षष्ठ भाव में जो ग्रह उपस्थित होता है, वह अपनी प्रकृति के अनुसार रोग प्रदान करता है|

3. षष्ठेश जिस ग्रह से युति सम्बन्ध बना रहा होता है, उस ग्रह से सम्बन्धित रोग होने की भी पूर्ण आशंका होती है|

4. जो ग्रह जन्मपत्रिका में नीचराशि, शत्रुराशि अथवा अत्यन्त अशुभ स्थिति में होता है, वह भी पीड़ाकारक सिद्ध हो जाता है|

5. लग्न पर जिस पाप ग्रह की शत्रु अथवा नीच दृष्टि हो, उस ग्रह से सम्बन्धित रोग या पीड़ा होने की भी आशंका होती है|

*सामान्यत: सूर्यादि नवग्रह निम्नलिखित बीमारियों के कारक होते हैं .*

1. सूर्य : पित्त, व्रण, जलन, उदर सम्बन्धी रोग, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी, न्यूरोलॉजी से सम्बन्धित रोग, नेत्र रोग, हृदय रोग, अस्थियों से सम्बन्धित रोग, कुष्ठ रोग, सिर के रोग, ज्वर, मूर्च्छा, रक्तस्राव, मिर्गी इत्यादि|

2. चन्द्रमा : हृदय एवं फेफड़े सम्बन्धित रोग, बायें नेत्र में विकार, अनिद्रा, अस्थमा, डायरिया, रक्ताल्पता, रक्तविकार, जल की अधिकता या कमी से सम्बन्धित रोग, उल्टी, किडनी सम्बन्धित रोग, मधुमेह, ड्रॉप्सी, अपेन्डिक्स, कफ रोग, मूत्रविकार, मुख सम्बन्धी रोग, नासिका सम्बन्धी रोग, पीलिया, मानसिक रोग इत्यादि|

3. मंगल : गर्मी के रोग, विषजनित रोग, व्रण, कुष्ठ, खुजली, रक्त सम्बन्धी रोग, गर्दन एवं कण्ठ से सम्बन्धित रोग, रक्तचाप, मूत्र सम्बन्धी रोग, ट्यूमर, कैन्सर, पाइल्स, अल्सर, दस्त, दुर्घटना में रक्तस्राव, कटना, फोड़े-फुन्सी, ज्वर, अग्निदाह, चोट इत्यादि|

4. बुध : छाती से सम्बन्धित रोग, नसों से सम्बन्धित रोग, नाक से सम्बन्धित रोग, ज्वर, विषमय, खुजली, अस्थिभंग, टायफाइड, पागलपन, लकवा, मिर्गी, अल्सर, अजीर्ण, मुख के रोग, चर्मरोग, हिस्टीरिया, चक्कर आना, निमोनिया, विषम ज्वर, पीलिया, वाणी दोष, कण्ठ रोग, स्नायु रोग इत्यादि|

5. गुरु : लीवर, किडनी, तिल्ली आदि से सम्बन्धित रोग, कर्ण सम्बन्धी रोग, मधुमेह, पीलिया, याददाश्त में कमी, जीभ एवं पिण्डलियों से सम्बन्धित रोग, मज्जा दोष, यकृत, प्लीहा, स्थूलता, दन्त रोग, मस्तिष्क विकार इत्यादि|

6. शुक्र : दृष्टि सम्बन्धी रोग, जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोग, मूत्र सम्बन्धी एवं गुप्त रोग, मिर्गी, अपच, गले के रोग, नपुंसकता, अन्त:स्रावी ग्रन्थियों से सम्बन्धित रोग, मादक द्रव्यों के सेवन से उत्पन्न रोग, पीलिया रोग इत्यादि|

7. शनि : शारीरिक कमजोरी, दर्द, पेट दर्द, घुटनों या पैरों में होने वाला दर्द, दॉंतों अथवा त्वचा सम्बन्धी रोग, अस्थिभ्रंश, मांसपेशियों से सम्बन्धित रोग, लकवा, बहरापन, खॉंसी, दमा, अपच, स्नायुविकार इत्यादि|

8. राहु : मस्तिष्क सम्बन्धी विकार, यकृत सम्बन्धी विकार, निर्बलता, चेचक, पेट में कीड़े, ऊँचाई से गिरना, पागलपन, तेज दर्द, विषजनित परेशानियॉं, किसी प्रकार का रिएक्शन, पशुओं या जानवरों से शारीरिक कष्ट, कुष्ठ रोग, कैन्सर इत्यादि|

9. केतु : वातजनित बीमारियॉं, रक्तदोष, चर्मरोग, श्रमशक्ति की कमी, सुस्ती, अकर्मण्यता, शरीर में चोट, घाव, एलर्जी, आकस्मिक रोग या परेशानी, कुत्ते का काटना इत्यादि|
विशिष्ट रोगकारक

*ग्रह सम्बन्ध .*

किसी रोग की उत्पत्ति में एक से अधिक ग्रहों की भूमिका होती है| यथा; हड्डी का टूटना सूर्य के कारण माना जाता है, लेकिन इसमें शनि की भी भूमिका होती है| यहॉं कुछ विशेष रोग और उनके कारक स्वरूप प्रमुख ग्रहों का वर्णन किया जा रहा है :
रोगों से सम्बन्धित ज्योतिषीय योग
रोगों के निर्धारण में उक्त सामान्य नियम तो ध्यान रखने ही हैं, इसके अतिरिक्त कुछ विशेष रोग भी हैं, जिनके सम्बन्ध में ज्योतिषीय योगों का वर्णन ज्योतिष ग्रन्थों में हुआ है|

1. यदि मेष, मिथुन, कन्या अथवा वृश्‍चिक लग्न में लग्नेश चन्द्रमा, राहु एवं शनि की युति हो, तो कुष्ठ रोग होता है| (बृहत्पाराशरहोराशास्त्र १८/६)

2. त्रिक स्थान (६, ८, १२) में स्थित सूर्य से यदि चन्द्रमा द्वादश भाव में स्थित हो, तो जल में गिरने का भय रहता है| (बृहत्पाराशरहोराशास्त्र १८/२२)

3. सप्तम भाव में मंगल एवं अष्टम भाव में शनि हो, तो फोड़े-फुन्सी होने का भय रहता है| (बृहत्पाराशरहोराशास्त्र १८/२३)

4. यदि षष्ठ भाव एवं षष्ठेश दोनों ही पाप ग्रहों से युक्त हों और शनि-राहु एक साथ स्थित हों, तो जातक को सदैव कोई न कोई रोग लगा ही रहता है| (बृहत्पाराशरहोराशास्त्र १८/१२)

5. यदि लग्नेश मेष, मिथुन, कन्या अथवा वृश्‍चिक राशि में स्थित होकर बुध से द्रष्ट हो, तो व्यक्ति को मुख से सम्बन्धित रोग यथा; पायरिया आदि होते हैं| (बृहत्पाराशरहोराशास्त्र १८/५)

6. लग्न स्थान में स्थित मंगल यदि शनि एवं सूर्य से द्रष्ट हो, तो जातक को चेचक रोग होता है| (जातक पारिजात ६/६२)

7. रोगों के सम्बन्ध में अष्टकवर्ग का भी विचार करना चाहिए| जो ग्रह अपने अष्टकवर्ग में चार से कम रेखाओं पर स्थित होता है, वह अपने से सम्बन्धित रोग प्रदान करता है| इसके अतिरिक्त समुदायाष्टक वर्ग में लग्न में २८ से कम रेखाएँ होना, लग्नेश का चार से कम रेखाओं पर स्थित होना, समुदायाष्टकवर्ग में लग्न की अपेक्षा षष्ठ भाव में अधिक रेखाएँ होना इत्यादि कुछ ऐसी स्थितियॉं हैं, जो रोगों में वृद्धि करती हैं|

विभिन्न ग्रह स्थितियों के अतिरिक्त कई बार शत्रुओं द्वारा किए गए मन्त्रप्रयोग अथवा अभिचार कर्म के कारण भी जातक रोग या पीड़ा को भोगने पर मजबूर हो जाता है| कई बार किसी भूत-प्रेत युक्त स्थान में अशुद्ध अवस्था में जाने पर व्यक्ति प्रेत बाधा से ग्रस्त हो जाता है और तब उसे शारीरिक अथवा मानसिक पीड़ा का अनुभव होता है| इस प्रकार की स्थिति का विचार राहु एवं शनि से मुख्य रूप से किया जाता है| सामान्यत: देखा गया है कि जिन व्यक्तियों की जन्मकुण्डली में लग्न में शनि अथवा राहु प्रतिकूल स्थिति में उपस्थित हों अथवा राहु एवं शनि की परस्पर दशा-अन्तर्दशा चल रही हो, तो जातक के साथ इस प्रकार की घटना घटित होती है| यदि जन्मपत्रिका में राहु एवं शनि का अशुभ प्रभाव नहीं हो, तो ऐसे जातक अपवित्र स्थान, श्मशान आदि में भी चले जाएँ, तो भी उन्हें भूत-प्रेत बाधा नहीं सताती है|

*रोगादि का समय निर्धारण .*

किसी रोग के होने का समय बहुत से तथ्यों पर निर्भर करता है| सामान्य रूप से जो ग्रह रोगकारक बन रहा है, उस ग्रह की अन्तर्दशा-प्रत्यन्तर्दशा आने पर ही वह अपना रोग प्रदान करता है| इसके अतिरिक्त यदि गोचरानुसार वह अशुभ भावों में भ्रमण कर रहा हो, तो भी रोग एवं पीड़ा उत्पन्न कर सकता है| सामान्य रूप से ऐसे ग्रह का लग्न द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव में गोचर रोगकारक होता है|

जो ग्रह लग्नेश से षष्ठ भाव में स्थित होते हैं, उनकी दशा-अन्तर्दशा में, जो ग्रह जन्मपत्रिका में अकारक या त्रिक भावेश हैं, उनकी दशा-अन्तर्दशा में, राहु, मंगल, शनि आदि पाप ग्रहों की दशा-अन्तर्दशा में जब किसी रोगकारक ग्रह की प्रत्यन्तर्दशा पड़ जाए, तो भी व्यक्ति को रोग होने की सम्भावना रहती है|

सामान्य रूप से त्रिक भावों में शुभ ग्रहों का गोचर और लग्न, द्वितीय, सप्तम भावों में पाप ग्रहों का गोचर रोगकारक होता है|

गोचर के अनुसार जब कोई पाप ग्रह शुभ ग्रह का वेध करते हुए गोचर करता है, तो भी रोग हो सकते हैं|

अष्टकवर्ग के अनुसार देखा जाए, तो जो ग्रह अपने अष्टकवर्ग में चार से कम रेखाओं पर स्थित हैं, वे अपनी दशा-अन्तर्दशा में शारीरिक कष्ट प्रदान करते हैं|

शनि, मंगल एवं राहु का सप्तम या अष्टम भाव से गोचर होना, गोचरानुसार इन ग्रहों का परस्पर वेध करते हुए गोचर करना दुर्घटना के योग बनाता है|

शनि की साढ़ेसाती एवं ढैया का भी रोगोत्पत्ति में प्रमुख स्थान होता है| इस अवधि में जातक को अनेक बार रोग, पीड़ा, दुर्घटना इत्यादि का सामना करना पड़ता है|

*रोग से मुक्ति?*

किसी भी रोग से मुक्ति रोगकारक ग्रह की दशा-अन्तर्दशा की समाप्ति के पश्‍चात् ही प्राप्त होती है| इसके अतिरिक्त यदि जन्मपत्रिका में लग्नेश की दशा-अन्तर्दशा प्रारम्भ हो जाए, योगकारक ग्रह की दशा-अन्तर्दशा प्रारम्भ हो जाए, पंचमहापुरुष योगकारक या स्वराशि, उच्च राशिगत शुभ ग्रह की अन्तर्दशा-प्रत्यन्तर्दशा प्रारम्भ हो जाए, तो रोग से छुटकारा प्राप्त होने की स्थिति बनती है|
रोगों के सम्बन्ध में समय का निर्धारण करने से पूर्व आयु से सम्बन्धित योग भी देख लेने चाहिए| यदि आयु योग उत्तम है, तो अनुकूल ग्रह की दशा रोग से राहत प्रदान करती है, लेकिन यदि आयु से सम्बन्धित योग ठीक नहीं हैं या रोगकारक पाप ग्रह अन्य शुभ ग्रह की अपेक्षा बलवान् है, तो रोग से राहत प्राप्त नहीं होती| इतना ही नहीं रोगों के समय निर्धारण में शनि एवं राहु का भी विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए| शनि यदि रोग का कारक बनता हो, तो इतनी आसानी से मुक्ति नहीं मिलती है, क्योंकि शनि किसी भी रोग से जातक को लम्बे समय तक पीड़ित रखता है और राहु जब किसी रोग का जनक होता है, तो बहुत समय तक तो उस रोग की जॉंच (डायग्नोसिस) ही नहीं हो पाती है| डॉक्टर यह समझ ही नहीं पाता है कि जातक को बीमारी क्या है? और ऐसे में रोग अपेक्षाकृत अधिक अवधि तक चलता है|

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