भावों

√★यह विश्व द्वादश भावों से पूर्ण है। जिसे सभी भावों का ज्ञान है, वह ज्ञानी है। भाव १ से नाव ६ तक दक्षिणायन है। भाव ७ से भाव १२ तक उत्तरायण है। जिसे दक्षिणायन-उत्तरायण की जानकारी है, वह पण्डित है।
           "तस्मै पण्डिताय नमः।"
√●दक्षिणांक पुरुष है। उत्तरांक (वामांग) स्त्री है। इन दोनों का सम्यक् ज्ञान ही ब्रह्मविद्या है। इस ब्रह्मज्ञान का निरूपण में सप्तम भाव में टिक कर करता हूँ। मेरा यह प्रयास कृपणता के दोष से परे रहने के निमित्त है। सप् [भ्वादिगण परस्मैपदी सपति सम्मान करना पूजा करना सम्बन्ध जोड़ना] + तनिन् प्रत्यय = सप्तन् । जहाँ संबंध जोड़ा जाता है, स्त्री का पुरुष से, वा, पुरुष का स्त्री से, वह सप्तन है जो पूज्य वा सम्माननीय है, वह भी सप्तन् है। यथा- स्त्री के लिये पुरुष पूज्य है, पुरुष के लिये स्त्री सम्मान्य है। संख्या ७ सप्तन् है। सप्तन् + डद्, मट् = सप्तम, सप्तानां पूरणः। सातवाँ स्थान पूज्य है। सप्तम भाव आदरणीय है। सात जिहाओं वाला अग्नि पूज्य है। सप्त किरणों वाला सूर्य पूज्य है। सप्तम धातु वीर्य पूज्य है। 

वैद्यकशास्त्र कहता है...

 "रसाद्रक्तं ततो मासं, मान्सामेदः प्रजायते।
 मेदसोsस्थि, ततो मज्जा, मज्जनः शुक्रस्य सम्भवः ॥" 
             (भाव प्रकाश)

√★ हमारे खाये हुए भोजन का अन्तिम परिणाम वीर्य है। हम जो कुछ खाते हैं, उसी से क्रमशः रस, रक्त,मांस मेद अस्थि मज्जा तथा वीर्य बनता है। वीर्य सातवीं धातु है। इसलिये सप्तम भाव में प्रतिष्ठित है। और पूज्य है। इस वीर्य के सात नाम हैं-
१. शुक्र । 
२. तेजस् । 
३. रेतस्।
 ४. बीज।
 ५. वीर्य । 
६. इन्द्रिय।
७. बल।
       सप्तनामा होने से वीर्य वरेण्य है। पुरुषदेह में सातवीं धातु रेतस है तो स्त्रीदेह में यही रजस् है। रजः और रेत का मिलन स्थान है, सप्तन्। यही से सृजन की नींव पड़ती है। अतएव संख्या ७ सात सृष्टि कारक है। यह संख्या तुला राशि है।

√●रजः की प्रबलता से कंन्या सन्तान उत्पन्न होती है। रेतः की प्रधान्यता से पुरुष सन्तान का जन्म होता है। दोनों की साम्यता से नपुंसक जन्मता है। दोनों की निर्बलता से सन्तान का अभाव होता है।

          रज का रेत के प्रति तथा रेत का रज की ओर सतत आकर्षण रहता है। यह स्वभाव है। इसलिये अपरिवर्तनीय है। पुरुष का रेत उसके तन-मन को आन्दोलित करता हुआ उसे स्त्री की ओर ढकेलता है। स्त्री का रज उसके तन-मन को झकझोरता हुआ उसे पुरुष की ओर ले जाता है। प्रकृतिजन्य होने से इस पर किसी का कोई वश नहीं। दोनों के तन मन प्राण चित्त इससे गम्भीर रूप से प्रभावित होते हैं।

√●स्त्री के साथ संसर्ग करने की इच्छा करने वाले पुरुष को चाहिये कि वह उसके ऋतुकाल का ध्यान अवश्य रखे। पत्नी के ऋतुदर्शन पर ऋतुधर्म के निमित्त संभोग करना वैदिक ऋषि की दृष्टि में प्रशस्त है।

         जो ब्राह्मण ब्राह्मणोत्तम सन्तों की सेवा करता है, उसे ऐसा आशीर्वाद मिलता है। सहस्रनाम के पढ़ने, कीर्तन करने वा सुनने से भी यह आशीर्वाद स्वतः मिलता है। दाम्पत्य जीवन में संततिवृद्धि के साथ-साथ अनेकानेक अवरोध पहाड़ सदृश सामने आते हैं। प्रभु कृपा के बिना इन पर अधिकार नहीं होता। अर्थ (धन) के बिना परिवार नहीं चलता। आज आरोग्य (स्वास्थ्य) के बिना जीवन नरक होता है। धन और स्वास्थ्य का दाता अग्नि (ज्योतिर्मान अग्नि वा सूर्य) है। विवाह के समय इसकी सात परिक्रमा की जाती है। बाद में ज्योति जला कर सतत इसकी परिक्रमा नमस्कारपूर्वक करने से धन और आरोग्य दोनों मिलता है। इस मंत्र में, हे इन्द्र, अग्नि का सम्बोधन है।

√●सब लोग मोक्ष की बात करते हैं और हैं, मोक्ष से सर्वथा अपरिचित यह कैसा वैचित्रय है ? 

व्याकरण की दृष्टि से मोक्ष एक स्वतन्त्र शब्द न होकर यौगिक शब्द है। यह दो शब्दों मोह और क्षय का फल है। 【मोक्ष = मोह + क्षय 】मोह के क्षयन का नाम मोक्ष है। मोह मोह का लोप क्षय, य का लोप मोह का नाश होना ही मोक्ष है। मोहदय =मोक्ष, (संक्षेपण पद्धति)। संसार में ऐसा कौन है, जिसमें मोह न विद्यमान हो ? जिस शक्ति के द्वारा मोह उत्पन्न होता है अथवा जो शक्ति सबको मोहती, मुग्ध करती, आवरण डालती, विवेक हरती है, उसका नाम मोहिनी है। यह विष्णु का एक अवतार है। राक्षस तो मोहिनी पर मुग्ध हुए ही भगवान् शिव इससे बच न सके। यह कथा पुराण प्रसिद्ध है। मोहिनी नाम स्त्री का स्त्री ने किसको नहीं मोहा ?

√●सप्तम भाव मोहिनी है। यह सब को मोह पाश से बाँधता है। सप्तम से पष्ठ अर्थात् द्वादश भाव इस मोहिनी का शत्रु है। यहाँ मोह का क्षय होता है। इसलिये यह मोक्ष स्थान है। यह अन्त्य भाव है। देह का अन्त होने पर मोह का क्षय होता है। जब तक देह, तब तक मोह। मोह है मोहिनी से। 
       "तस्मै मोहिनीरूप विष्णवे नमः।"

√●स्त्री में ऐसी क्या वस्तु है, जो पुरुष को मोहती है ? उत्तर है-उसका सौन्दर्य। उसका श्रृंगार उसका यौवन। उसका विलास । उसका लावण्य। सुष्ठु उन्नति आर्दीकरोति चित्तमिति सुन्दरम्। सु + उन्द् (रुधादि परस्मै उनत्ति तर करना द्रवित करना, गौला करना आर्द करना) + अरम् (ऋगतौ + अच्, गति) = सुन्दर। जो हृदय को द्रवित करता, तर करता, गीला करता है तथा उसकी जड़ता का नाश कर उसे गति देता, उसमें हलचल पैदा करता है, उत्तमतापूर्वक, आत्यंतिक रूप से, यथार्थतः उसे सुन्दर कहते हैं। सुतुदादि परस्मै सुवति उत्तेजित करना उकसाना + द् दिवादि दोर्यंत क्रयादि दृणाति फाड़ना चौरना विदीर्ण करना अप् = सुन्दर जो मन को उत्तेजित करता तथा हृदय को चीरते हुए उसमें भाव तरंगे पैदा करता है, वह सुन्दर है। सुन्दर में निहित तत्व जिससे सुन्दर होना शक्य है, को सौन्दर्य कहते हैं श्रृंगार= श्रृंग + आर = शृ क्र्यादि परस्मै शृणाति + गन् ऋगतौ + अण्। जो फाड़ता हुआ, हृदय की जड़ता को विदीर्ण करता हुआ, चोट करता हुआ चलता है, उसे श्रृंगार कहते हैं। ललित वेश भूषा, कामोन्मादक मैथुन प्रेरक अंग सौष्ठव का नाम श्रृंगार है। शारीरिक सजावट को श्रृंगार माना जाता है। शरीर को वह अवस्था, जिसमें सौन्दर्य अपनी पराकाष्ठा पर तथा श्रृंगार अतिरुचिकर लगता है, यौवन कही जाती है। रतिद्योतक हावभाव ही विलास है। जैसे लवण बिना भोजन है, वैसे लावण्य लवणीयता के बिना सौन्दर्य, श्रृंगार, यौवन, विलास । भीतर का तेज जो अपनी ओर अनायास आँखों को खींचता है, का नाम लावण्य है। जिस नारी में सौन्दर्य है, श्रृंगार है, यौवन है, विलास है, लावण्य है, वह मोहिनी है, पुरुष के चित्त को चुराने वाली है तथा अपने दैहिक वैभव की चकाचौंध में मानव विवेक की आँखों की दर्शनशक्ति छीनने वाली है। जिसकी बुद्धि चक्षु में राम नाम का अंजन लगा है, वह उसे सतत देखता हुआ प्रसन्न होता है, पतित नहीं। ऐसे पुरुष को मेरा नमस्कार ।

√●स्त्री अपने को भोग्या मात्र समझे तथा पुरुष उसे केवल भोगमयी दृष्टि से देखे, उचित नहीं। यह हमारी स्वस्थ सांस्कृतिक परंपरा के अनुकूल नहीं है। आधुनिक युग में ब्राह्माण्ड सुन्दरी, विश्वसुन्दरी, राष्ट्रसुन्दरी, नगर सुन्दरी की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं। इसमें नारी के शरीर का व्यापारिक मूल्यांकन होता है। धनपशु इन नारियों को भोगते हैं, कवि-कलाकार इसे कहते/लिखते, चित्रित करते हैं। दूरदर्शन के पटल पर ऐसी एक प्रतियोगिता मैंने देखी। मैं इससे तनिक भी मुग्ध नहीं हुआ। क्योंकि मुझे इसमें सुगन्ध का अभाव दिखा। सुगन्ध क्या है ? नारी में लज्जा, सेवापरायणता, नम्रता, कोमलता, मृदुता, वत्सलता का होना ही सुगन्ध है। सुगन्ध के बिना नारी भोग्या होती है, पूज्या नहीं। पुरुष के भीतर नारी के प्रति पूज्य भाव उत्पन्न होना चाहिये जो नारी अपने प्रति पुरुष के मन में पूज्य भाव उत्पन्न करने में समर्थ है, वह धन्य है। सीता ऐसी नारी होने से विश्ववन्द्य है। सौता जिसकी धर्मपत्नी बनीं, वे राम महानतम है। मैं उनकी शरण में हूँ।

√★सोलह सिंगार युक्त नारी पुरुष के मन को मोह लेती है। ऐसा मैं सुना हूँ। यहाँ मैं श्रृंगार की ऊहा करता हूँ....

 "चार कमलवत् पाँच तनुल, उन्नत तीन प्रकार । 
दीर्घ गहन उज्ज्वल लवण, सोलह मूल सिगार ।।"

 कमलवत् चार अंग-कर चरण वंदन नमन।

 तनुल (पतले) पाँच अंग- कण्ठ ओष्ठ रसना कटि अंगुली । 

उन्नत (उठे हुए) तीन अंग-वक्ष नासिका नितम्ब ।

 दीर्घ अंग- केश (वेणी)।

 गहन अंग- नाभि । 

उज्ज्वल-दन्त।

 लवण अंग-त्वचा।

 इस प्रकार ४ + ५ +३+१+१+१+१ = १६ नारी के सहज श्रृंगार हैं। सामुद्रिक शास्त्र में इन १६ अंगों का कथित विशेषताओं वाला होना शुभ कहा गया है। ये नारी को स्पृहणीय बनाते हैं। विभिन्न शारीरिक अवयवों का वर्णविन्यास सुन्दर होने के लिये पूर्व निश्चित है। श्वेत कृष्ण पीत रक्त ये चार वर्ण अपेक्षित हैं। कृष्णवर्ण केश श्वेतवर्ण-दाँत पीताभ-त्वचा रक्ताभ- ओष्ठ, मसूड़ा, करतल, पादतल, नखपृष्ठ |

√● समस्त सौन्दर्य श्रृंगार की केन्द्र बिन्दु आंखें होती हैं। इनमें चारों वर्णों की छटा होती है-बीचोबीच कृष्ण नील, इसके परितः पीत स्वर्णिम, इसके चारों ओर श्वेत पटल तथा इस श्वेत में रक्त धारियाँ आँखें तल, उन्नत, कमलवत्, दीर्घ, गहन, उज्ज्वल एवं लवणीय होने से पूर्ण हैं।

√● सौन्दर्य की संवाहक श्रृंगार की शावक, यौवन की पादक, विलास की स्तम्भ तथा लावण्य की लता ऑंखें शोभा की खान हैं। कुण्डली में इनका अध्ययन नवों ग्रहों के प्रकाश में करना चाहिये । 

◆१. सूर्य आँखों का कारक है। यह आँखों में देखने की शक्ति देता है तथा विशेष रूप से दाय आँख का प्रतिनिधि है।

 ◆२. चन्द्रमा आँखों को लावण्य देता है। आँखों में आँसू वा आर्दता चन्द्रमा के कारण होता है। यह बायीं आँख का प्रतिनिधि मह है।

◆३. मंगल आंखों में पड़े लाल डोरों का प्रतिनिधि है। आँखों में तीखापन मंगल से होता है। की मारकता मंगल से है।

 ◆४. बुध से आँखों में चंचलता एवं केलि निपुणता का समावेश होता है। तिरछी चितवन का कारक बुध है।

 ◆५. बृहस्पति आँखों में गहराई एवं स्थिरता देता है। आँखों में दया, करुणा एवं वात्सल्य का भाव गुरु से होता है।

 ◆६. शुक्र से आँखों की रूपाकृति का बोध होता है। आँखों में लालित्य शुक्र से होता है। यह आँखों के मादकपन का कारक है।

 ◆७. शनि से आँखों में पतलापन एवं दीर्घता आती है। यह आंखों को शुष्क एवं उदासीन वृत्ति प्रदान करता है। आँखों में नीलिमा शनि ग्रह से है। बरौनियों का कारक शनि है। 

◆८. राहु से पलकें गिरती है तथा केतु से उठती है राहु-केतु आँखों के दो कपाट है जो खुलते और बन्द होते रहते हैं।

√●आँखों की एक भाषा है, जिसे आँखें समझती हैं। यह भाषा हर आंख से हर क्षण प्रस्फुटित होती है। भाव ही इसके शब्द हैं। इनका अर्थ बोधगम्य है, किन्तु गहन एवं अप्रकटनीय ।

 सुन्दर होने का भाव सौन्दर्य है। यह सौन्दर्य है, कहाँ ? दृश्य वस्तु में, वा द्रष्टा में ? इसका निर्णय करना कठिन है। जो सुन्दर है, वह सबके लिये सुन्दर होना चाहिये। पर ऐसा नहीं है। एक श्लोक है...

 "मल्लानामशनिः नृणां नरवर: स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान् 
गोपानां स्वजन: असता क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः ।
 मृत्युभोजपतेः विरादविदुषां वृष्णीनां विराडविदुषां तत्वं परं योगिनां
 परदेवतेति विदितो गतः रङ्ग साग्रजः ॥"

[ कृष्ण को मल्ल लोग वज्र के समान कठोर शरीर वाला देखते हैं, साधारण मनुष्यों को वे नररत्न दिखायी पड़ते हैं, लियों उन्हें मूर्तिमान कामदेव के रूप में देखती हैं, गोपगण उन्हें स्वजन के रूप में देखते हैं, दुष्ट लोक उन्हें दण्ड देने वाले राजा के रूप में देखते हैं, मातापिता उन्हें शिशु रूप में देखते हैं, कंस को वे मृत्यु के रूप में दिखायी पड़ते हैं, अज्ञानियों को विराट, योगियों को परमतत्व तथा वृष्णिवंशी उन्हें अपना इष्टदेव समझ रहे हैं।] यह है, दृष्टि का चक्कर इससे निष्कर्ष निकलता है जो सुन्दर है, वह असुन्दर भी है। एक के लिये प्रिय, दूसरे के लिये अप्रिय भी होता है। माता को अपना कुरूप बालक सुन्दर दिखता है। वास्तव में प्रेम का प्रस्फुरण सौन्दर्य का सृजन करता है।

√●सुन्दरी मानवी सीता को देखकर बन्दर लोग कहते हैं...

 '"अस्याः शरीरं गौरं। 
नेत्रं दीर्घम् उन्नता नासिका, कटीकृशा, अंगानि लोमरहितानि पुच्छमेव नास्ति ।
 कथं इयं सुन्दरी ?इति ।"

 सुन्दरता, वस्तुपरक है कि दृष्टिपरक, क्या कहा जाय ? एक ही सौन्दर्य दृश्यनिष्ठ एवं द्रष्टुनिष्ठ होने से दो प्रकार का है। यह द्वैत, सत्य है। लोक में देखा जाता है, स्त्री-पुरुष परस्पर आँखों से अच्छे लगते हैं, प्रणय करते हैं, उलझते हैं, विवाह सूत्र से बँधते हैं। कुछ समय बाद वे ही आपस में लड़ते झगड़ते हैं, विवाह सूत्र को तोड़ते हैं। सुन्दर असुन्दर हो जाता है। यह सांसारिक सत्य है। लग्न शरीर है। चन्द्रमा मन है। शरीर सुन्दर-असुन्दर होता है। मन सुन्दर से असुन्दर वा असुन्दर से सुन्दर नहीं होता। शरीर बूढ़ा होता है। मन कभी बूढ़ा नहीं होता। इसलिये, मन का मन से विवाह होना स्थैर्यदायक एवं सुखद होता है। शरीर का शरीर से विवाह होना अस्थिर क्षर एवं दुःखद होता है। यही कारण है कि ज्योतिषशास्त्र में विवाह हेतु स्त्रीपुरुष को कुण्डलियों का मिलान परीक्षण चन्द्रराशिनक्षत्र से किया जाता है न कि लग्नराशि, नक्षत्र से अधिक गुण वाले विवाह टूटते नहीं, कम गुण वाले विवाह टूटते हैं। यद्यपि मन का आवास यह शरीर है, शरीर की अपेक्षा मन अधिक प्रभावशाली है। जो मनस्तत्व की उपेक्षा कर शरीर तत्व को वरीयता देता है, उसका वैवाहिक संबंध दृढ़ नहीं होता। एक समान दो मन अपरिवर्त्य होते हैं। जबकि, देह परिवर्तनशील |

√●आधुनिक भौतिकवादी सभ्यता के प्रभाव से समाचार पत्रों में जो वैवाहिक विज्ञापन निकलते हैं, उनमें अंगमापकता होती है। वक्ष का घेरा, कटि की परिधि कटिप्रोथ का परिमाप, नख से शिर तक की लम्बाई तथा सम्पूर्ण देह का भार परिमाण को ध्यान में रखकर जो विवाह किया जाता है, वह उस समय चरमरा जाता है जब स्तन लटकने एवं शुष्क होने लगते हैं, कमर झुक जाती वा वातग्रस्त होती है, नितम्ब निष्पन्द हो जाता है, मुखमण्डल विवर्णता को प्राप्त होता है। शारीरिक सौष्ठव को वरीयता देने वाले पछताते हैं। मानसिक सौन्दर्य को श्रेष्ठ समझ कर उसका सम्मान करने वाले कभी भी पश्चाताप नहीं करते। विवाह केवल शरीर से नहीं मन और शरीर दोनों से करना चाहिये। मन से धर्म और शरीर से कर्म को करता हुआ गृहस्थ कृतकत्य होता है।

√●समाज में प्रायः दो प्रकार की पलियों का होना पाया जाता रहा है।

■ १. धर्म पत्नी - जिस स्त्री के साथ गाँठ जोड़ कर पुरुष अग्नि को साक्षी रखकर उसके सात फेरे करता है, वह उसकी धर्म पत्नी है। धार्मिक कर्मकाण्डों में पुरुष इसे अपने दाहिने पार्श्व में बैठा कर यज्ञादि कर्म करता है तथा एकान्त में इसे अपने वामपार्श्व में करके उससे रतिवार्तादि करता है। 

■२. भोग पत्नी- जिस स्त्री को पुरुष अपनी काम पिपासा की पूर्ति के लिये अपनी अंकशायिनी बनाता है, वह उसकी भोग पत्नी है। इसके साथ अग्नि को साक्षी रखकर विवाह करना आवश्यक नहीं है।

 भोग पत्नों को रखैल कहा जाता है। धनाढ्य लोगों के पास रखैलों की कमी नहीं होती। भोजपुरी में एक कहावत है...

 'दाल भात पर चटनी, मेहरारू पर रखनी।' जैसे दाल भात के साथ स्वाद हेतु चटनी का स्वाद लिया जाता है, वैसे धर्म पत्नी के साथ रखैल होने से गृहस्थ जीवन स्वादिष्ट हो जाता है।

 जो गृहस्थ अपनी धर्म पत्नी को तुष्ट न करते हुए भोग पत्नी का वरण करता है, उसका गृहस्थ जीवन नरक बन जाता है। सर्वत्र ऐसे उदाहरण विद्यमान हैं। जहाँ पुरुष की तरह स्त्री भी अपना जार रखती है, वहाँ झगड़ा तो नहीं होता किन्तु कुटुम्ब परंपरा नष्ट हो जाती है। इसलिये पुरुष, नारी की स्वतन्त्रता / स्वच्छन्दता पर अंकुश लगाता है। स्त्री, स्वभाव एवं परिस्थितिवश इसे तोड़ती रहती है।

 √●स्त्रियाँ पुरुष को आकर्षित करने के लिये कृत्रिम श्रृंगार करती हैं। ऐसा श्रृंगार प्राकृतिक पृष्ठभूमि में होने से अच्छा है। ढलते हुए यौवन से चिन्तित स्त्रियाँ कृत्रिम सजधज से अपने को सुन्दर रूप में प्रस्तुत करने की आकांक्षी होती हैं। श्वेत होते हुए केशों पर रसायन पोत कर काला करना, आंखों में काजल भर कर उन्हें निखारना, मुरझाते हुए अधारों पर लाल रंग की पर्त चढ़ाना, नाखूनों की कुरूपता को रक्तिम रसायन से ढकना, मलिन कपोलों को रसायन के प्रयोग से आरक्त करना, दुर्गन्धित देह पर सुगन्धित द्रव्यों का लेप करना, स्त्रियों के बाह्य श्रृंगार हैं। 

√●भीतर के श्रृंगार के बिना बाहर का श्रृंगार व्यर्थ है। हृदय में छल-कपट का कूड़ाकर्कट भरा है और से वस्त्राभूषण की सजावट है तो परिणाम शुभ एवं सुखद कभी नहीं रहेगा। शूर्पणखा सजधज कर बाहर राम को लुभाने / प्राप्त करने आयी थी, नाक, कान और चुचूक कटवा कर गई। राम हृदय के श्रृंगार पर मुग्ध होते हैं, शरीर के बाह्य श्रृंगार से नहीं। हृदय का सौन्दर्य है, श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, समर्पण, सरलता एवं सत्यनिष्ठा । पूतना श्रृंगार करके कृष्ण को दूध पिलाने गई थी। उसके भीतर कपट था, बुद्धि दूषित थी, प्रेम का अभाव था। फलस्वरूप मृत्यु को प्राप्त हुई जो स्त्री शूर्पणखा एवं पूतना बनेगी, उसकी मनोभिलाषा पूर्ण नहीं होगी। ऐसी हतकामा को मैं नमस्कार करता हूँ।

 √●सुन्दर विचार, सुन्दर आचार, सुन्दर भाव, सुन्दर बुद्धि का होना ही वास्तविक श्रृंगार है। मूर्ख स्त्रियाँ शूर्पणखा एवं पूतना बनती हैं। शूर्पवत् नख हैं जिसके, वह सूप समान लम्बे तीक्ष्ण नखों को धारण करने वाली ललना शूर्पणखा (सूपनखा है। राक्षसी सभ्यता के प्रचार प्रसार के परिणामस्वरूप इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। सूप के समान नाखूनों से रति समर में शस्त्र का काम लेने वाली ये ललनाएँ पुरुष को नखक्षत से उत्तेजित कर, केलियुद्ध का सुख लूटती हैं ये पूतनाएँ शिशुओं को स्तनपान से वञ्चित कर, पुरुषों को काम युयुत्सु करने के लिये उसे पुष्ट एवं उठा हुआ प्रदर्शित करती हैं। इन मूर्खाओं को मैं नमस्कार करता हूँ।

√● श्वेतायमान केशों को पार्थिव रंग से काला न कर राम एवं कृष्ण के रंग से काला किया जाय-राम और कृष्ण की कथा से मस्तिष्क कोषों को भरा जाय, आँखों में राम और कृष्ण के रूप का रंग भर कर उन्हें काला किया जाय, ओठों को राम-कृष्ण के नामोच्चार से लाल किया जाय, कपोलों पर रामकृष्ण के राग का लेप किया जाय, हृदय समुद्र का मन्थन कर उसमें से राम एवं कृष्ण के प्रेम का रत्न निकाला जाय तो कितना अच्छा हो । ऐसे नर और नारी दोनों धन्य हैं। जहाँ रामायण और श्रीमद्भागवत की कथाएँ हैं, वहाँ सुखशांति है। ऐसे दाम्पत्य का घर स्वर्ग है। ऐसे घर की कन्या जहाँ जायेगी वहाँ स्वर्ग का अवतरण होगा। सद्गृहस्थ होने के लिये ऐसी कंन्या का वरण करना चाहिये। ऐसी नारियों ने अब तक सनातन धर्म की रक्षा किया है। आज संसार में जो कुछ भी हिन्दू शेष हैं, वे सब इन से हैं। जिस राष्ट्र समाज जाति कुल की नारी दूषित हुई, उसका पतन हुआ। हमारा भारत देश अब भी धर्मप्राण देश है तो केवल इन नारियों से है। पाश्चात्य शिक्षा सभ्यता का प्रदूषण फैल रहा है। इसे कौन रोके ? राम ।

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