-जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः।वेद पाठात् भवेत्विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।
अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है।वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जानले,वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।
– योग सूत्र व भाष्य के रचनाकार पतंजलि के अनुसार विद्या तपश्चयोनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मणएव स:॥
अर्थात- ”विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातेंजिसमें पाई जायँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप सेशून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता” (पतंजलि भाष्य 51-115)।
(३)महर्षि मनु के अनुसार विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥
अर्थात-शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला,शिष्यादि की ताडनकर्ता,वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों कीहितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं” (मनु; 11-35)
(४)महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार “जोजन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण
नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो” (सन्दर्भ ग्रन्थ –महाभारत)
(5)भविष्य पुराण के अनुसारः
निवृत्तः पापकर्मेभ्योः ब्राह्मणः से विधीयते ।
शूद्रोSपिशीलसम्पन्नो ब्राह्मणदधिकोभवेत् ॥ भविष्य पुराण . अ. 44।
जो पापकर्म से बचा हुआ है, वही सच्चे अर्थों में ब्राह्मण है । सदाचार सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मण से अधिक है । आचारहीन ब्राह्मण शूद्र से भी गया बीता है । विवेक, सदाचार, स्वाध्याय और परमार्थ ब्राह्मणत्व की कसौटी है । जो इस कसौटी पर खरा उतरता है, वही सम्पूर्ण अर्थों में सच्चा ब्राह्मण है ।
(6)वृहद्धर्ग पुराणके अनुसारः
ब्रह्मणस्य तू देहो यं न सुखाय कदाचन ।
तपः क्लेशाय धर्माय प्रेत्य मोक्षाय सर्वदा ॥ वृहद्धर्ग पुराण 2/44॥
ब्राह्मण की देह विषयोपभोग के लिये कदापि नहीं है । यह तो सर्वथा तपस्या का क्लेश सहने और धर्म का पालन करने और अंत मे मुक्ति के लिये हि उत्पन्न होती है ।
ब्राह्मण का अर्थ है विचारणा और चरित्रनिष्ठा का उत्त्कृष्ट होना ।
(7)मनुस्मृति के अनुसारः
सम्मनादि ब्राह्मणो नित्यभुद्विजेत् विषादिव ।
अमृतस्य चाकांक्षे दव मानस्य सर्वदा ॥ मनुस्मृति 1/162॥
ब्राह्मण को चाहिये कि वह सम्मान से डरता रहे और अपमान की अमृत के समान इच्छा करता रहे ।
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