चीन तो बहुत पहले से ही भारत का सांस्कृतिक अनुगामी था किंतु सिंगापुर (जो कि कभी सिंहपुर कहलाता था) से लेकर फिलीपींस तक का सांस्कृतिक स्कंधावार के रूप में वर्णन हमारे शास्त्रों में है।
भारत के पूर्वी तट पर ओडिशा और दक्षिण तट पर बसे अनेकानेक पत्तनों चाहे वो ताम्रलिप्ति हों, पुरी हों, विशाखापत्तनम हों या महाबलीपुरम; सभी से सुदूर दक्षिण पूर्व के देशों से आवागमन व व्यापार होता रहा है। सबसे प्रथम साहसी समुद्रवेत्ता के रूप में महर्षि अगस्त्य का नाम बड़े आदर से लिया जाता है।
वहीं लंकाधिपति कुबेर के रूप में भारत ने व्यापार में अभूतपूर्व समृद्धि प्राप्त की। पश्चात् रावण ने भी अपनी सशक्त जल सेना के माध्यम से सुदूर द्वीपों पर जय प्राप्त किया।
महर्षि अगस्त्य के बाद भी यह परम्परा दक्षिण के पांड्य, चोल, चेर राजवंशों ने सहस्त्रों वर्षों तक जारी रखी। इनके साम्राज्य में नाविकों ने दक्षिण अमेरिका तक की साहसिक यात्राएं की और लोगों को सनातन परम्परा के मूल्यों से परिचित कराया।
इतना ही नहीं, हमारी नौसेना ने कितने ही सुहृदों की रक्षा की। एक ऐसे ही यह अभियान है चोल नरेंद्र राजराजेंद्र की। जैसा कि आप जान ही चुके हैं कि भारतीय नाविकों के साथ अनेकानेक ब्राह्मण भी धर्म का उपदेश देने व शोध कार्य के लिए सुदूर द्वीपों व महाद्वीपों की यात्रा करते थे और इसी क्रम में कई देशों के नागरिकों को सुसंस्कृत और सुशिक्षित भी किया करते थे।
कई सहस्र वर्षों से दक्षिण पूर्व देश सनातन परम्परा का पालन करते आ रहे थे लेकिन जब बौद्धों ने भारत की सनातन परम्परा से द्रोह किया तो ये अपने मत की स्थापना के लिए किसी भी सीमा तक चले गये जिसमें विदेशियों से अपने ही बांधवों का नाश कराना भी एक जघन्य कृत्य था। और जहाँ भी सनातन मतावलम्बी थे, इन बौद्धों ने उन्हें अपने मत में परिवर्तित करने या फिर नष्ट करने में कोई कसर न छोड़ी।
राजराजेन्द्र देव अपने पिता राजराज के निधन के बाद १०१४ में चोल साम्राज्य का राजा बना। वह अरबों के खलीफा की नौसेना से सावधान था।
सबसे पहले उसने दक्षिण के राज्यों पर विजय प्राप्त कर सबको एकजुट किया। पीछे गंगासागर तक धावा बोलकर बंगाल और ओडिशा को साथ मिला लिया। और अरबों से जूझ रहे उत्तर के पराक्रमी राजाओं से मैत्री स्थापित कर भारत में अरबों के समुद्री मार्ग बंद ही कर दिये। उसने हिंद महासागर, पश्चिम समुद्र और गंगासागर तक के सम्पूर्ण जल मार्ग पर नियंत्रण कर लिया। पश्चात् श्रीलंका के बौद्ध राजा के उत्पातों से त्रस्त नाविकों के अनुरोध पर श्रीलंका को जीत कर वहाँ के राजा को पकड़ लिया।
आर्थिक मजबूती के लिये चोल-राज ने अन्य देशों से व्यापार को बढ़ावा देने का निश्चय किया। उस समय चीन जापान और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से भारत का अधिकतर व्यापार होता था।
बहुमूल्य सामग्री से लदे जहाज गंगासागर (बंगाल की खाड़ी) और हिन्द महासागर को पार कर यव द्वीप (जावा) होते हुए लव द्वीप (लाओस), चम्पा (वियतनाम), कम्बुज (कप्पूचिया) के बन्दरगाहों पर माल उतारते थे। इसके बाद ये पोत चीन और जापान की ओर बढ़ जाते थे। इस समुद्री मार्ग की सुरक्षा के लिये राजेन्द्र देव ने अपनी नौसेना को और मजबूत किया और लड़ाकू जहाजों पर सवार हो महासागरों को नापने के लिये निकल पड़ा।
इतिहासकारों के अनुसार, राजेन्द्र चोल के इस नौसैनिक अभियान की योजना अभूतपूर्व व अद्वितीय थी। प्राचीन भारत के तब तक के सबसे बड़े इस नौसैनिक अभियान का उद्देश्य अन्य देशों से भारत के व्यापार के मार्ग को सुरक्षित करने के साथ ही वैदिक धर्म की विजय पताका पुनः पूरे एशिया में फहराना था।
दक्षिण पूर्व एशिया के तत्कालीन श्रीविजय साम्राज्य के साथ चोल राजवंश के मित्रता के सम्बन्ध थे, लेकिन वहाँ के सैनिकों ने बौद्धों के प्रभाव में आकर भारत से माल लेकर आयी कई नौकाओं को लूट लिया था। उसका दण्ड देने के लिये राजेन्द्र देव ने यह नौसैनिक अभियान प्रारम्भ किया था।
सन् १०२५ में उसके सैनिक बेड़े ने फुर्ती से गंगा सागर पार कर यव द्वीप (जावा) और सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) पर अधिकार कर लिया। श्रीविजय साम्राज्य के तत्कालीन अधिपति संग्राम विजयतुंगवर्मन की नौसेना भी काफी शक्तिशाली थी।
चोल सेना ने मलय प्रायद्वीप (मलेशिया) पर आक्रमण कर श्रीविजय के प्रमुख बन्दरगाह कडारम् (केडाह) को जीत लिया। दोनों सम्राटों के मध्य हुए निर्णायक युद्ध में चोल नौसेना के लड़ाकू युद्ध पोतों ने श्रीविजय राज्य की नौ-सेना को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। पराजय के पश्चात विजयतुंगवर्मन ने चोल सम्राट से मित्रता कर ली। भारत का व्यापार मार्ग अब पूर्ण रूप से सुरक्षित होने के साथ संम्पूर्ण दक्षिण भारत और सिंहल द्वीप के साथ-साथ दक्षिण पूर्व एशिया पर भी चोल साम्राज्य की विजय पताका फहराने लगी।
अन्दमान निकोबार द्वीपों और मालदीव पर भी चोल नौसेना का अधिपत्य हो गया। चीन में भी उसके राजदूत रहते थे।
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