मन्त्र की प्रति

मन्त्र की प्रति

मन्त्र की चार प्रकार की प्रकृति कही गई है-

(१) अरि, (२) साध्य, (३) सिद्धि और (४) सुसिद्धि ।

मन्त्र की जैसी प्रकृति होती है, वैसा ही उसका फल भी मिलता है ।

मन्त्र की प्रकृति यदि शत्रु भाव 'अरि' में हो तो कार्य सिद्धि नहीं होती । 'साध्य' प्रकृति का मन्त्र भी काम को बिगाड़ देता है। 'सिद्धि' प्रकृति के मन्त्र का कार्य समय आने पर अर्थात् कुछ विलम्ब से सिद्ध होता है तथा 'सुसिद्धि' प्रकृति का मन्त्र बहुत शीघ्र सिद्धि प्रदान करता है।

मन्त्र की प्रकृति जानने की विधि इस प्रकार है -

नीचे प्रर्दाशत १२ कोष्ठकों वाले यन्त्र में अपने नाम के तथा मन्त्र के

आदि अक्षरों को देखें। यदि अपने नाम के अक्षर के कोण से मन्त्र के आदि अक्षर का कोण पहला, पाँचवा अथवा नवाँ हो हो तो मन्त्र को 'सिद्धि' प्रकृति का समझना चाहिए । यदि दूसरा, छठा अथवा दसवां कोण हो तो 'साध्य' प्रकृति का समझना चाहिए । यदि तीसरा, सातवां अथवा ग्यारहवां कोण हो तो 'सुसिद्धि' प्रकृति का समझना चाहिए । यदि चौथा, आठवाँ अथवा बारहवाँ कोण हो तो 'अरि' प्रकृति का समझ लें ।

यदि मन्त्र में तीन या चार बीज हों तो लोम-प्रति-लोम की विधि से जो बीज सुसिद्धि हो, उसे मन्त्र के आदि में लगाना चाहिए। जैसे- वेदप्रकाश 'क शह' मन्त्र को जपना चाहता है तो लोम-प्रति-लोम विधि से इस मन्त्र की ६ शक्लें निम्नानुसार होंगी ।
इन सभी शक्लों के तीनों अक्षर बारह कोष्ठों वाले यन्त्र में हैं। वेद प्रकाश

'का अक्षर 'व' ग्यारहवें कोण में है तथा मन्त्र का पहला अक्षर 'क' पहले

कोण में है तो ग्यारहवें से तीसरा कोण 'सुसिद्धि' हुआ, जो अत्युक्रम है । दूसरा अक्षर 'श' छठे कोठे में है। ग्यारहवें से आठवाँ होने के कारण यह 'अरि' हुआ, जो अति निकृष्ट है। तीसरा अक्षर 'ह' नवे कोण में है। ग्यारहवे से नाँ 'सिद्धि' होने के कारण अत्युत्तम है।

अस्तु, इस मन्त्र के आदि-अन्त के दो अक्षर उत्तम हैं तथा बीच का अक्षर निकृष्ट है। अतः पूर्वोक्त ६ शक्लों में पहली, दूसरी, चौथी तथा पाँचवी में से जिसका जप किया जायगा, उससे मनोरथ की सिद्धि होगी तथा तीसरी और छठी शक्ल का जप करने से हानि होगी ।

मन्त्रों के विषय में ज्ञातव्य

मन्त्रों के विषय में निम्नलिखित बातें और जान लेनी चाहिएー

(१) शान्ति कर्म में मन्त्र के अन्त में 'नमः,' वशीकरण में 'स्वाहा'; स्तम्भन में 'वषट्'; विद्वषण में 'वोषट्; उच्चाटन में 'हैं' तथा मारण कर्म में 'फट्' शब्द का प्रयोग करके हवन करना चाहिए। मन्त्र के अन्त में उक्त शब्दों को जोड़ देना उचित है।

(२) मन्त्रों की स्त्री-पुरुषादि तीन संज्ञाए इस प्रकार कही गई हैं-

जिन मन्त्रों के अन्त में 'स्वाहा' पद रहता है, वे 'स्त्री-संज्ञक' होते हैं। जिन यन्त्रों के अन्त में नमः' पद रहता है, वे 'नपुंसक संज्ञक' होते हैं । जिन मन्त्रों के अन्त में 'हुं फट्' पद रहता है, वे पुरुष संज्ञक होते हैं।

वशीकरण, शान्तिकर्म तथा अभिचार कर्म में पुरुष संज्ञक मन्त्र प्रयुक्तः होते हैं। क्षुद्र क्रियादि के नाश में स्त्री संज्ञक मन्त्र प्रयुक्त होते हैं तथा अन्य कर्मों में 'नपुंसक संज्ञक' मन्त्रों का प्रयोग होता है।

(३) मन्त्र साधन से पूर्व झणीधनी का विचार का लेना आवश्यक है। साथ ही वर्ग, राशि, मास, वार, तिथि, नक्षत्र, चन्द्रमा, योगिनी, दिशाशूल, दिशा, लग्न तथा कूर्म चक्रानुसार आसन आदि का विचार कर लेना चाहिए ।

(४) मन्त्र-यन्त्र साधन के लिए साधक का पूर्ण विश्वासी तथा श्रद्धालु होना आवश्यक है, अन्यथा विपरीत फल प्राप्त होता है।

(५) स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर तीन दिन तक विधिपूर्वक पूजन, तीन रात्रि तक पृथ्वी पर शयन, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा मिथ्या भाषण, क्रोध, ईर्ष्या, अहंकार आदि से दूर रहकर, तब मन्त्र साघन आरम्भ करना चाहिए । इनके बिना मन्त्र सिद्ध नहीं होता ।

(६) मन्त्र विद्या का प्रयोग कभी भी अपने स्वार्थ एवं लाभ के लिए

नहीं करना चाहिए । यह विद्या तो केवल परोपकार के लिए ही है। अपने

लिए हमें विद्या का उपयोग केवल तभी करना चाहिए, जब वैसा करना

नितान्त ही आवश्यक हो जाय। किसी को हानि पहुंचाने के उद्देश्य से इस

विद्या का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।

(७) अन्ध विश्वासी, शंकालु, मिथ्यावादी, दुराचारी, अहंकारी, मूर्ख तथा अपवित्र व्यक्तियों के लिए यह विद्या फलदायी नहीं होती। किसी सुयोग्य गुरु से उचित निर्देश एवं शिष्यत्व प्राप्त किये बिना भी इस विद्या में सफलता प्राप्त नहीं होती । अपूर्ण जानकारी अथवा गलत प्रयोग के कारण यह विद्या स्वयं के लिए हानिकर भी सिद्ध हो सकती है। अतः हमें सब बातों को खूब ध्यान में रखकर ही तान्त्रिक साधनों की क्रिया में प्रवृत्त होना चाहिए ।

यन्त्र साधुन

मन्त्र-साधन के विषय में जिन आवश्यक विषयों का उल्लेख किया गया है, यन्त्र-साधन के लिए भी उन सबको ध्यान में रखना एवं तदनुसार आचरण करना आवश्यक है । यन्त्र-साधन के लिए निम्नलिखित बातों को और ध्यान में रखना चाहिए -

(१) सर्वप्रथम यन्त्र-गायत्री के मन्त्र, द्वारा यन्त्र में प्राण-प्रतिष्ठा करना आवश्यक है। यन्त्र गायत्री का मन्त्र इस प्रकार है-

"यन्त्रराजाय विद्महे महायन्त्राय धीमहि । तन्नो यन्त्रः प्रचोदयात् ।"

इस मन्त्र द्वारा यन्त्र को चारों ओर से वेष्ठित करना चाहिए। फिर सर्वतो भद्र मण्डल में, आठों दलों में कलशों की स्थापना कर, उसके ऊपर यन्त्र को रखना चाहिए। मण्डल के चारों कोनों में चार कलश स्थापित करके प्रत्येक कलश पर हाथ रखकर-

"श्राँ ह्रीं क्रौं ।"

इन तीन अक्षरों वाली विद्या में कूर्च-बीजों को लगाकर एक हजार बार जप करना चाहिए। फिर उस यन्त्र को चारों कलशों के जल द्वारा, अभिषेक के मन्त्रों से अभिषिक्त कर, गंध पुष्पादि से पूजन कर, प्राण-प्रतिष्ठा के मन्त्रों से यन्त्र में यन्त्र-देवता की प्राण-प्रतिष्ठा करके पूर्वोक्त यन्त्र-गायत्री के द्वारा शोडषोपचार पूजन कर, ब्राह्मण, सुवासिनी तथा कन्याओं को भोजन करना चाहिए तथा उन्हें दक्षिणा देकर आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए। तत्पश्चात् जिस अङ्ग में यन्त्र को धारण करने का निर्देश किया गया है, उसी अङ्ग में यन्त्र को धारण करना चाहिए ।

(२) जहाँ किसी विशिष्ट वस्तु पर यन्त्र को लिखने का विधान न दिया गया हो, वहाँ यन्त्र को भोजपत्र पर लिखना चाहिए ।

(३) जहाँ यन्त्र-लेखन के लिए किसी विशेष द्रव्य का विधान न हो, वहाँ उसे गोरोचन, कपूर, केशर, कस्तूरीगोरोचन, चन्दन, अगर अथवा गजमद में से किसी भी एक वस्तु के द्वारा लिखना चाहिए ।

(४) जहाँ यन्त्र लेखन के लिए किसी विशेष प्रकार की लेखनी (कलम)- का उल्लेख न हो, वहाँ सोने की सलाई से लिखना चाहिए ।

(५) जहाँ यन्त्र को किसी वस्तु विशेष में भर कर धारण करने का उल्लेख न हो, वहाँ उसे सोने या ताँबे के ताबीज में भरकर धारण करना चाहिए । जहाँ त्रिलोह के ताबीज का उल्लेख हो, वहाँ सोना, चाँदी और ताँबा' - इन तीनों धातुओं के मिश्रिण से निर्मित ताबीज समझना चाहिए ।

(६) जहाँ यन्त्र को किसी विशिष्ट अङ्ग में धारण करने का उल्लेख न हो, वहाँ पुरुष को अपो दायीं भुजा तथा स्त्री को अपनी बायीं भुजा में धारण करना चाहिए ।

(७) जिस यन्त्र के साथ जिस मन्त्र के जप का निर्देश किया गया हो, उस मन्त्र का विधिपूर्वक जप करना चाहिए ।

(८) मित्रता के लिए यन्त्र लिखना हो तो मुँह में मिश्री अथवा गाय का घी रखकर लिखें । यदि मारण उच्चाटन के लिए लिखना हो तो सेधा नमक एवं नीम का पत्ता मुह में रख लें। जिह्वा- स्तम्भन के लिए लिखना हो तो मुँह में मोम रखकर लिखें । यदि स्वप्न बन्द करने के लिए लिखना हो तो मुँह में नमक रख लेना चाहिए ।

(६) लेखनोपरान्त मित्रता के लिए लिखे गये यन्त्र को अगर, तगर, चन्दन चूरा, गूगल, मिश्री, गाय का घी, शहद, कपूर, दाल चीनी, जायफल एवं मेवा - इन्हें एकत्र करके इन्हीं की धूप देनी चाहिए ।

मारण उच्चाटन के लिए लिखे गये यन्त्र को सेंधा नमक तथा नीम के पत्तों की धूप देनी चाहिए । जिह्वा स्तम्भन के लिए लिखे गये यन्त्र को मोम की धूप देनी चाहिए ।
स्वप्न बन्द करने के लिए लिखे गये यन्त्र को नमक की धूप देनी चाहिए ।

इस पुस्तक के अगले प्रकरण में सर्वप्रथम यन्त्र-साधन उल्लेख किया गया है। वशीकरण के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों से सम्बन्धित शास्त्रीय तथा लोक प्रचलित यन्त्रों क। उल्लेख किया गया है। वशीकरण सम्बन्धी यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र तथा अन्य विषयों का विस्तृत वर्णन हमारी 'वशीकरण मोहिनी विद्या (हिप्नोटिज्म) तथा शक्ति चक्र के प्रयोग' नामक एक अन्य पुस्तक में किया गया है। अतः जो महानुभाव वशीकरण सम्बन्धी यन्त्रादि के प्रयोगों को जानना चाहते हों, उन्हें हमारी उक्त पुस्तक का अध्ययन करना चाहिए ।




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