भगवान कृष्ण के मृत्यू का रहस्य

▪ क्या भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर त्याग किया था ?
▪ जरा शिकारी वास्तव में कौन था बाली अथवा भृगु ऋषि ?

▪ श्रीमद्भागवत ११.३१.६ 
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमङ्गलम् ।
योगधारणयाग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥ ६॥
'भगवानका श्रीविग्रह सारे उपासकोंके ध्यान और धारनाका मंगलमय आधार और समस्त लोकोंके लिए परम् रमणीय आश्रय हे;इसीलिए उन्होंने योगियोंके समान अग्निदेवतासंबंधी योगधारनाके द्वारा उसको जलाया नहीं,सशरीर अपने धाम में चले गए ।'

▪ व्याख्या
जिस योगीको अपना शरीर त्यागने के लिए समय निर्धारित करने की शक्ति मिली रहती हे, वह आग्नेयी नामक योगीक ध्यान में लग कर ज्वाला उत्पन कर इसे जला सकता हे और अगले जीवन में चला जाता है । इसी तरह देवतागण इस योगिक अग्नि का प्रयोग तब करते हैं जब वे वैकुण्ठ-लोक को जाते है । लेकिन भगवान तो योगियों तथा देवताओंसे सर्वथा भिन्न है क्योंकि भगवान का नित्य आध्यात्मिक शरीर सारे जगत का स्रोत है जैसाकि श्रीमद्भागवत 11.31.6 के 'लौकाधिरामां स्वतनुम्' शब्दों से सूचित होता है । भगवान श्री कृष्ण का शरीर सारे ब्रह्माण्ड के लिए आनन्द का स्त्रोत है । 'धारणाध्यानमंगलम्' शब्द यह बताता है कि जो लोग ध्यान तथा योग से आध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहते हैं वे भगवान् के शरीर के ध्यान के माध्यम से सर्वमंगल प्राप्त करते हैं । चूँकि योगीजन मात्र कृष्ण के शरीर का चिन्तन करने से ही मुक्त हो जाते हैं.वह शरीर निश्चय ही भौतिक या क्षणिक नहीं हे.

इसीलिए उनका श्रीविग्रह निश्चय ही भौतिक या अस्थायी अथवा क्षणिक नहीं हे.

▪ कोई कहते हे भगवान कृष्ण की मृत्यु जरा नामक शिकारी के कारन हुई जो वास्तव में पूर्व जन्म में बाली था !
बाली ही जरा हुआ और उसके बाण से कृष्ण की मृत्यु हुई - यह दोनों बाते युक्तिसंगत नहीं हे ! श्रीपाद मध्वाचार्य जो वेदव्यासजी के शिष्य एवं शास्त्रोंके(पद्म पुराण,गर्ग संहिता) अनुसार श्रीब्रह्माजी के अंश अवतार हे उन्होंने अपने भागवत भाष्यमें कहा हे की यह जरा वास्तव में भृगु ऋषि थे जिन्हें भगवान के वक्ष पर पैर मारने के कारन यह शरीर प्राप्त हुआ था.किन्तु भगवान अपने भक्त को ऐसी स्थिति में नहीं देख सकते थे इसीलिए अपनी लिलाओंका समापन करने हेतु उन्होंने जरा अर्थात भृगु ऋषि को चुना जिन्हें उनके कृत्य के कारन प्रकृति ने जरा रूप प्रदान किया था.जब जरा भगवान के समीप किन्तु झाडियोंके पीछे था तब उसने भगवान के चरण को हिरन का मुख समझ तीर छोड़ दिया.

[ यह कहा जाता हे की भगवान राम ने वाली के अंत समय में वाली को वरदान दिया था की तुम द्वापर में जन्म लोगे और इसीतरह मुझ पर वार करोगे किन्तु ऐसा कथन न तो वाल्मीकि रामायण में मिलता हे न ही रामचरितमानस में और न ही पुराणोंमे ही . वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में बताया गया हे की ''भगवान श्री राम के वाली पर तीर चलाने के पश्चात्  वाली भगवान राम पर आरोप लगता हे की मुझे आपसे यह उम्म्मीद न थी आपने मेरा वध अनीति से किया तोह भगवान श्री राम मंद सी मुस्कान के साथ वाली को उसके कर्मोंके बारेमे सबकुछ बताते हे और उसपर वृक्ष के पिछेसे क्यों वार किया यह भी बताते हे तथा भगवान राम यह भी कहते हे यदि फिर भी तुम्हे लगता हे की तुम्हारा वध अनीति से हुआ हे तो मै तुम्हे इसी क्षण जीवन दान देता हु. भगवान श्रीराम से यह सब सुनकर वाली समझ जाता हे की यह सब उसके कर्मोंके कारन हुआ और कहता हे ''हे प्रभु मुझे जीवन तो हजारो मिल सकते हे किन्तु ऐसी मृत्यु जो योगियोंके लिए भी अत्यंत दुर्लभ हे मुझे मिल रही हे(अर्थात मै आपका चिंतन करते करते देह त्याग कर रहा हु जो कर्म-योगी,ज्ञान-योगी के लिए परम दुर्लभ हे ),यह कह वाली सुग्रीव से माफ़ी मांग उसे राजा घोषित करता हे और उसे अपनी पत्नी एवं पुत्र अंगद की रक्षा का दायित्व सौप भगवान राम का नाम लेते-लेते देह त्याग कर परमधाम को प्राप्त होता हे''.तोह वाली का परमधाम से आकर पुनः जन्म लेना वह भी एक शिकारी जैसा निम्न जन्म यह तर्क तो युक्तिसंगत नहीं हे,See The Full Story Here - http://goo.gl/ennT7N

तथा यह भी कहा जाता हे की जरा के रूपमें अंगदजी का जन्म हुआ था क्योंकि उसकी इच्छा थी की मै अपने पिता के वध का बदला लू.// श्री राम ने किन कारणोंसे वाली का वध किया था यह सब तोह ऊपर बताया गया हे साथ ही मूल रामायण वाल्मीकि रामायण के में वर्णन आता हे - वाली प्राण त्यागने के पहले अंगद से कहते हे - हे पुत्र ! श्रीराम के प्रति कोई भी शत्रुता का भाव न रखना क्योंकि उन्होंने मुझे नहीं मारा हे,अपितु मेरे बुरे कर्मोने ही मेरा वध कर दिया हे ! इसीलिए तुम सुग्रीव की सेवा उसीतरह करो जिस प्रकार मेरी सेवा किया करते थे और कृपया श्रीराम की सेवा उन्हें भगवान मानकर करो. // यह स्वभाविक हे की कोई भी पुत्र अपने पिता के आखिरी वचनोंका पालन करेगा और अंगदजी तो प्रथम श्रेणी के भक्त थे तोह उनमे श्री राम के प्रति विरुद्ध भाव होना संभव नहीं.
अतः जरा शिकारी वाली/अंगद थे ये बस एक कल्पना हे जिसका कोई शास्त्रिक आधार हमें प्राप्त नहीं होता और यह तर्कसंगत भी नहीं हे ]

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार यह कथन कि, '‘‘बाण ने भगवान् के पाँव को बेध दिया’’ शिकारी के दृष्टिकोण को व्यक्त करता है, जिसने सोचा कि उसने मृग को मार दिया है। वास्तव में उस बाण ने भगवान् के चरणकमल का स्पर्श मात्र ही किया था, बेधा नहीं था क्योंकि भगवान् के अंग सच्चिदानन्द रूप हैं। अन्यथा, अगले श्लोक के वर्णन में (कि शिकारी डर गया और भगवान् के चरणकमलों में सिर रख कर गिर पड़ा) शुकदेव गोस्वामी यह बतलाये होते कि बहेलिये ने भगवान् के चरण से अपना तीर निकाला।''

▪ श्रीकृष्ण का द्विभुज शरीर पूर्ण सचिदानंद हे यह समस्त शास्त्र घोषित करते हे -

ब्रह्म संहिता ५.१ में कहा गया हे -
'' ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह ।
अनादिरादिर्गोविन्द: सर्वकारणकारणं।।१।।''
अर्थात ''सच्चिदानंदविग्रह श्रीगोविंद कृष्ण ही परमेश्वर हे.वे अनादी,सबके आदि और समस्त कारणोंके कारण हे.''

श्रीमद्भागवत ९.२५.१० में श्रीभगवान के सभी रुपोंको दिव्य अर्थात उनके स्वरुप को सच्चिदानंद बताया गया हे -
''पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के भीतर स्थूल व सूक्ष्म जगत का अस्तित्व विद्यमान है। अपने भक्तों पर अहैतुकी कृपावश वे विभिन्न दिव्य रूपों को प्रदर्शित करते हैं। परमेश्वर अत्यन्त उदार हैं एवं उनमें समस्त योग शक्तियाँ हैं। अपने भक्तों के मन को जीतने तथा उनके हृदय को आनन्दित करने के लिए वे नानाविध अवतारों में प्रकट होते हैं और अनेक लीलाएँ करते हैं।''

श्रीमद्भगवद्गीता ४.६ -
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ६॥
''यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त
जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य
रूप में प्रकट होता हूँ।''

श्रीमद्भागवत १०.१४.१ ब्रह्माजी कहते हे - ''हे ग्वालनरेश पुत्र, आपका दिव्य शरीर नवीन बादलों के समान गहरा नीला है''

श्रील जिव गोस्वामी अपने भागवत सन्दर्भ में इस विषय में महा-वराह पुराण से एक श्लोक बताते हे - "श्रीभगवान के सभी दिव्य विग्रह(अवतार) अनादी और अविनाशी हे,उनकी किसी समय सृष्टि नहीं हुइ हे और वे कभी नष्ट नहीं होते.वे भौतिक प्रकृति की निर्मिती नहीं हे.''

   जब जरा वहा आ गया तब उसने भगवान को देखा उनसे क्षमा मांगी तथा इसके बाद भगवान की परिक्रमा करने के उपरांत उसे भगवान ने अपने धाम भेज दिया. इस तरह अंतिम लीला हेतु भगवान श्रीकृष्ण ने जरा को चुना अर्थात अपनी अंतिम लीला में भगवान ने जरा का उद्धार किया और वे अपनी लीला का संवरण कर सभी ब्रह्मा,शिवजी आदि देवाताओंके देखते देखते अपने धाम में प्रविष्ट हुए इसका विस्तार से वर्णन हमें श्रीमद्भागवत के स्कन्ध ११ अध्याय ३०-३१ में मिलता हे.

भगवान श्रीकृष्ण बद्धजीवोंकी तरह जीवन मृत्यु से प्रभावित नहीं होते जैसा की  उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा हे - 'मै काल का भी काल महाकाल हे' । इस जगत में अंतिम तत्व काल होता हे.किन्तु काल में सामर्थ्य नहीं की वह अपना प्रभाव भगवान श्रीकृष्ण पर डाल सके । काल तो उनकी बहिरंगा शक्ति का एक विस्तार मात्र हे जो सदा उनके अधीन हे ! जिसपर मृत्यु का प्रभाव होता हे वही शरीर त्यागता हे किन्तु श्रीकृष्ण के बारे में यह कहा जाय तो यह पूर्ण अनुचित हे क्योंकि सारे भक्त उनके सूंदर द्विभुज श्रीविग्रह के ध्यान मात्र से ही मृत्यु और जन्म के चक्र से मुक्त हो जाते हे तो भला श्रीकृष्णने शरीर त्याग दिया यह बात युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होती । आदि शंकराचार्य,श्रीपाद रामानुजाचार्य,श्रीपाद माधवाचार्य,श्रीपाद विष्णु-स्वामी,श्रीधर स्वामी,संत श्रीज्ञानेश्वर,संत श्रीएकनाथ,संत श्रीतुकाराम,भगवान श्रीचैतन्य,श्रील रूप गोस्वामी,श्रील जिव गोस्वामी, श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर आदि सहित अनेको विख्यात आचार्य श्रीभगवान के सभी अवतारोंके श्रीविग्रह सच्चिदानंद रूप बताते हे.

श्री कृष्ण गीता में स्वयं कहते हे की मेरे जन्म-कर्म तिरोभाव आदि सब दिव्य होते हे - जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ४.९॥
''हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।''

तोह भला कोई उन्हें मानवों जैसा शरीर धारण करनेवाला और शरीर त्याग करनेवाला कह ही कैसे सकता हे ?
श्रीभगवान का प्राकट्य और तिरोभाव की तुलना आचार्योने सूर्य से की हे जैसे सूर्य उदय और अस्त होता हे उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और उनके सभी अवतारोंका प्राकट्य और तिरोभाव होता हे,यहाँ हमें ध्यान देना होगा की सूर्य का प्राकट्य होता हे जन्म नहीं साथ ही सूर्य अस्त सूर्य का अप्रकट होना होता हे मृत्यु नहीं उसी प्रकार भगवान प्रकट और अप्रकट होते हे.जिस प्रकार अस्त(अप्राकट्य) के बाद भी सूर्य आकाश में बना रहता हे उसी तरह श्रीभगवान और उनके समस्त अवतार भी लीला के पश्चात् अपने अविनाशी धामोंमे सदैव उपस्थित रहते हे.

▪ मायावादी/अद्वैतवादी श्रीकृष्ण को निराकार ब्रह्म का अवतार/साकार रूप मानते हे तथा यह कहते हे की श्रीकृष्ण अंतर्धान होनेके बाद निराकार हो गए अथवा निराकार में प्रविष्ट हो गए .
किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता १४.२७ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हे - "ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम" अर्थात मै ही निराकार ब्रह्म का आश्रय हु.श्रीकृष्ण गीता में अपने धाम की तुलना देवताओंके धाम से करते हे,देवतागण सभी व्यक्ति हे एवं उनके धाम भी साकार हे अर्थात श्रीभगवान भी एक व्यक्ति हे और उनका धाम भी साकार हे.इस प्रकार श्रीकृष्ण सदैव ही साकार होते हे,पद्म पुराण,हरिवंश और ब्रह्म संहिता कहती हे की निराकार ब्रह्म श्रीकृष्ण के सच्चिदानंद शरीर का तेज हे.इसे सूर्य और सुर्यकिरनोंके उदाहरण से समझा जा सकता हे.सूर्य साकार हे और किरणे(तेज) निराकार जो सर्वत्र फैली हुई हे.

श्रीमद्भागवत को स्वयं भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अमल पुराण घोषित किया हे एवं अन्य सभी पूराण श्रीमद्भागवत की श्रेष्टता का वर्णन भी करते हे, यही एकमात्र ऐसा पुराण हे जिसे श्रीमद्भगवद्गीता के समान श्रेष्ट माना जाता हे तथा श्रीमद्भागवत पर ८वि शताब्दी से लेकर आजतक ३० से अधिक भाष्य विख्यात आचार्योंद्वारा लिखे गए हे,इस कारन श्रीमद्भागवत का निर्णय सबसे उच्च सिद्ध हो जाता हे.

▪ कोई कहते हे की श्रीकृष्ण के शरीर का अंतिम संस्कार हुआ था किन्तु यह कोई वास्तविकता नहीं हे जिसकी ऊपर वर्णित हे की श्रीकृष्ण का स्वरुप सच्चिदानंद हे तथा

श्रीकृष्ण का द्विभुज दिव्य शरीर सारे नियमोंसे परे हे जिसे कोई भी अग्नि जलाने का सामर्थ्य नहीं रखती । अग्नि आदि पञ्च तत्व तो उनकी भौतिक प्रकृति का विस्तार हे जो सर्वदा उनके अधीन कार्य करती हे जैसा की श्रीमद्भगवद्गीता ९.१० में भगवान श्रीकृष्ण कहते हे -
"मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।" अर्थात 'यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं।'
  श्रीकृष्ण विष्णु,नरसिंह,वामन आदि समस्त अवतारोंके स्त्रोत,अवतारी पुरुष हे - एते चांश कला पुंस कृष्णस्तु भगवान स्वयं (श्रीमद्भागवत १.३.२८) - ऊपर वर्णित समस्त अवतार अंश अथवा अंश के अंश कला हे किन्तु श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हे.ब्रह्म संहिता ५.४८ - यस्यैकनिश्वसितकालमाथावलम्ब्य जीवन्ति लोम विलजा: | विर्ष्णुमहां स इह यस्य कलाविशेषो गोविन्दमादीपुरुषं तमहं भजामि ||
"अर्थात जिन महाविष्णु का एक नि:श्वास बाहर निकलकर जितने समय तक वह बाहरस्थित रहता हे,उनके रोम कुपोंसे प्रकटित ब्रह्माण्डपति ब्रह्मादी उतने ही कल तक जीवित रहते हे;वे महाविष्णु -जिनके कलाविशेष अर्थात अंशके अंश हे ,उन आदिपुरुष गोविन्दका मै भजन करता हु.'' , श्रीमद्भागवत ११.२४.८-९ में भगवान श्री कृष्ण उद्धवसे कहते हे - 'तामस अहंकार से पंचतन्मात्राए और उनसे पाँच भूतोंकी उत्पत्ति हुई तथा राजस् अंहकारसे इंद्रियोंके अधिष्ठाता ग्यारह देवता प्रकट हुए । ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गए और इन्होंने यह ब्रह्माण्डरूप अंड उत्पन्न किया । यह अंड मेरा उत्तम निवासस्थान हे । जब वह अंड जलमें स्थित हो गया तब मैं नारायणरूपसे इसमें विराजमान हो गया । मेरी नाभिसे विश्वकमलकि उत्पत्ति हुई । उसीपर ब्रह्माका आविर्भाव हुआ । // चूँकि श्रीकृष्ण के यह पुरुष अवतार अंडरूपी ब्रह्माण्ड के गर्भ में जल पर विराजमान होते हे जो उन्हीके स्वेद से प्रकट हुआ हे,सभी वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य इस पुरुष रूप को गर्भोदकशायी विष्णु कहते हे.//
श्रीकृष्ण मूल अवतारी पुरुष हे - इस सम्बन्ध में स्वयं भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु भी कहते हे जिसे यहाँ 'https://goo.gl/vlYFDs' विस्तृत रूपसे देखा जा सकता हे.

▪ श्रीमद्भागवत ११.३१.६  -
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमङ्गलम् ।
योगधारणयाग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥ ६॥
'भगवानका श्रीविग्रह सारे उपासकोंके ध्यान और धारनाका मंगलमय आधार और समस्त लोकोंके लिए परम् रमणीय आश्रय हे;इसीलिए उन्होंने योगियोंके समान अग्निदेवतासंबंधी योगधारनाके द्वारा उसको जलाया नहीं,सशरीर अपने धाम में चले गए ।'

इस विषय में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर हमें श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण के ही कथन ( ११.१४.३७) का स्मरण कराते हैं
'वर्हिमध्ये स्मरेद रूपं ममैतध्यानमंगलम्'
अग्नि के भीतर मेरे स्वरूप का ध्यान करना चाहिए जो समस्त ध्यान का शुभ लक्ष्य है । चूँकि भगवान का दिव्य रूप अग्नि के भीतर स्थिति तत्व के रूप में उपस्थित रहता है तो भला अग्नि उस रूप को कैसे प्रभावित कर सकती है ? इस प्रकार यद्यपि भगवान् योग-समाधि में प्रविष्ट करते प्रतीत हो रहे थे किन्तु 'अदग्ध्वा' शब्द सूचित करता है कि भगवान का शरीर विशुद्धरूप है, आध्यात्मिक होने के कारण जलने की औपचारिकता से बचते हुए सीधे अपने निजी धाम में प्रविष्ट हो गए ।

इस प्रकार श्रीमद्भागवत एवं श्रीमद्भगवद्गीता आदि मुख्य शास्त्रोंके के अनुसार श्रीकृष्ण का शरीर एवं आत्मा दोनोमे कोई भेद नहीं हे क्योंकि वे पूर्ण सच्चिदानंद स्वरुप हे यह सिद्ध होता हे.

हरे कृष्ण हरे कृष्ण ।
कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।
हरे राम हरे राम ।
राम राम हरे हरे ।।
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