ब्राह्मण के लक्षण व व्याख्या

•••••ब्राह्मण के लक्षण व व्याख्या•••••
     √•ब्राह्मण के घर जन्म होने से ब्राह्मण जानिये, संस्कार होने से ब्राह्मण द्विज कहलाता है, विद्याध्ययन से विप्र, जन्म व यशोपवीत संस्कार व ब्रह्मविद्या इन तीनों से क्षेत्रिय, ये वचन महान ऋषि अत्रि जी के हैं।

√•ब्राह्मणों की आठ प्रकार की व्याख्या

✓•शास्त्रों में ब्राह्मणों की आठ प्रकार की व्याख्या की है जो इस प्रकार से है-

√•1- जो अपने किसी एक उद्देश्य को त्याग कर-व्यक्तिगत, स्वार्थ की उपेक्षा करके वैदिक आचार का पालन करता है। सरल एकान्तप्रिय, सत्यवादी तथा दयालु है, उसे ब्राह्मण कहा गया है।

√•2- जो वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहो अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित छः कमों से संलग्न रहता है, वह धर्मश विप्र क्षोत्रिय कहलाता है।

√•3- वेद शास्त्रों के तत्व ज्ञान को, स्वच्छ मन से, श्रेष्ठ क्षोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला विद्वान है वह अनुचान कहलाया गया है।

√•4- अनुचान के समस्त गुणों से पारंगत होकर केवल यज्ञ कार्य व स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, स्वादरहित, सादा भोजन करता है और अपनी इन्द्रियों का अपने वश में रखता है, ऐसा ब्राह्मण श्रेष्ठ पुरुष भ्रूण कहलाया गया है।

√•5- ऋषिकल्प ब्राह्मण वह कहलाया गया है, जो सम्पूर्ण वैदिक व लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करके सदा मन और इन्द्रियों को वश में रखकर अपने आश्रम में ही निवास करता है।

√•6- जो पहले तन-मन से शुद्ध हैं जिसको किसी भी विषय में कोई सन्देह नहीं, जो शाप और दान में समर्थ और सत्यवाणी है, ऐसा ब्राह्मण ऋषि कहलाया गया है।

√•7- जो निवृत मार्ग में स्थित, सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों, तत्व बोध के ज्ञाता काम-क्रोध से रहित, ध्यानमग्न, निष्क्रिय जितेन्द्रिय तथा मिट्टी और सुवर्ण को समझने वाला है, ऐसे ब्राह्मण को मुनि कहते हैं।

√•8- जिसका जन्म ब्राह्मण कुल में तो हुआ है लेकिन जिसे ब्राह्मणोचित्त उपनयन संस्कार तथा वैदिक कर्मों का कुछ भी ज्ञान नहीं तब उसे नाममात्र का ब्राह्मण कहते हैं-

√••वंश, विद्या और वृत से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण त्रिशुल्क कहलाते हैं वे ही यज्ञ में पूजे जाते हैं।

√•ब्राह्मण के पंद्रह लक्षण

√•ब्राह्मणों के पन्द्रह जो लक्षण हैं वे यदि एक ब्राह्मण में हो तो वही श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं-

✓•1- धर्मानुष्ठान करना।

✓•2- समस्त वेद-शास्त्रों का सांगोपांग ज्ञान प्राप्त करना।

✓•3- वेद, ईश्वर, मुक्ति, पूर्वजन्म, धर्म, विद्या, सत्संग, माता-पिता, आचार्य तथा गुरुजनों की सेवा में सदैव आस्था रखना।

✓•4- पृथ्वी से लेकर ईश्वर तक का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर जन मानस के कल्याणार्थ प्रचार करना।

✓•5- मन से बुरे काम की इच्छा कभी न करना।

✓•6- इन्द्रियों को बस में रखकर, स्वधर्म में लगाना।

✓•7- निन्दा स्तुति, सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि, भूख-प्यास, हर्ष-शोक छोड़कर धर्म से डटे रहना।

✓•8- कोमलता, मृदुभाषी व सरलता धारणकर बुरे व्यसनों को त्यागना।

✓•9- क्षमा, दया, सत्य, शाम, दाम, सदाचार व आध्यात्म का चिन्तन करना।

✓•10- निन्दित कर्मों का त्यागना।

✓•11- जहां तक हो सके, सभी मनुष्यों को अपने जैसा समझना।

✓•12- पुनर्जन्म का सिद्धान्त मानना।

✓•13- सेवा धर्म में तत्पर रहना।

✓•14- अपने बड़ों से सम्मान तथा छोटों से प्यार करना।

✓•15- ईश्वर, धर्म, ज्ञान, विद्या तथा ज्ञान का प्रचार करना।

✓•वेद-शास्त्रों में ब्राह्मण के लक्षण इस प्रकार से दिये हैं-

"घृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहः।
धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥"

√•अर्थात् जिस व्यक्ति में धैर्य, क्षमा, इन्द्रियों को बस में करने की शक्ति हो, चोरी न करने की प्रेरणा, पवित्रता, काम, क्रोध व पड़यंत्र करने वाले दुष्टों को दमन करने की शक्ति, विद्या, सत्यवचन, क्रोध पर नियन्त्रण हो वह मानव है, उपरोक्त लक्षणों से युक्त मनुष्य जिस व्यक्ति को अपना गुरु मानले वह ब्राह्मण हैं। अपात्र ब्राह्मण कौन है यह भी जान लेना जरूरी है जो ब्राह्मण स्नान व संध्या नहीं करता है, अपने स्वकर्म में आलस्य रखता है, वेदाभ्यास नहीं करता है, वैश्या के साथ संग करता है, सदा मिथ्या भाषण करता है, जो क्रय-विक्रय कर व्यापारी की दुकान लगाता है, जो कोढ़ी, अंगहीन व पतित है, ऐसे ब्राह्मणों को कुपात्र कहना चाहिये, इनको दान देने से निष्फल होता है।

√•अब जाति मात्र ब्राह्मण की प्रशंसा करते हुये भगवान कहते हैं कि ब्राह्मण मूर्ख हो या ज्ञानी पंडित, वह सब वणों का पूज्य होता है। ब्राह्मण कुलित भी हो तो भी पूज्य ही है, शूद्र जितेन्द्रिय हो तो भी पूज्य नहीं होता, जैसे गाय जो, दूध कम देती है तब भी पूज्य है और भैंस अधिक दूध देती है तब भी पूज्य नहीं है। इसलिये पृथ्वी में ब्राह्मण जंगमतीर्थ है, अपने कुल का पूज्य ब्राह्मण यदि विद्या में कमजोर है, परन्तु शान्त वृद्धि व दुष्कर्मरहित है पढ़ तो कभी भी उसका त्याग न करके दूसरे ब्राह्मण को अपने पूज्य कार्य में नहीं बुलाना चाहिये। और यदि अपने कुल का ब्राह्मण क्रोधी, लोभी, दुर्बुद्धि व पाप कर्म करने वाला है तो भी उसको अपने पूजन कार्य में नहीं बुलाना चाहिये, ऐसे ब्राह्मण को जो दान, दक्षिणा देता है यह स्वयं पाप का भोगी है।

√•ब्राह्मण का शरीर संसार की भलाई के लिये है न कि लड़ाई करने के लिये, ब्राह्मण तप करके संसार की भलाई व ज्ञान देने के पश्चात् अन्तकाल में मोक्ष प्राप्ति करने के लिये ही पैदा हुआ है, वर्ण में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं ब्राह्मण में शास्त्रज्ञ श्रेष्ठ है उससे ज्ञान प्राप्त करना श्रेष्ठता है।

√•ब्राह्मणों के 12 महाव्रत अर्थात् लक्षण-

✓•1. ज्ञान अभ्यास, 
✓√2. सत्यभाषण, 
✓•3. शास्त्र श्रवण, 
✓•4. लज्जा रखना, 
✓•5. इन्द्रियदमन, 
✓•6. दुःख-सुख समझना, 
✓•7. डाह न करना, 
✓•8. निदर्दोष रहना,
✓•9. दान देना व लेना, 
✓•10. धैर्य रखना, 
✓•11. मन को जीत लेना, 
✓•12. यश करना व कराना।
त्रिस्कन्धज्योतिर्विद्

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