महान ब्राह्मण क्रांतिकारी "बाघा जतिन"

महान ब्राह्मण क्रांतिकारी "बाघा जतिन"
महान ब्राह्मण क्रांतिकारी "बाघा जतिन" यानी यतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के लिए बस इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्तित्व इस दुनिया में विरले ही जन्म लेते है। वे ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने इंग्लैंड के प्रिंस ऑफ़ वेल्स के सामने ही अंग्रेज अधिकारियों को पीटा था । यतीन्द्र से अंग्रेज बुरी तरह खौफ खाते थे । बचपन से ही शरीर से हष्ट-पुष्ट, यतींद्र में साहस की भी कोई कमी नहीं थी। साल 1906 में सिर्फ 27 साल की उम्र में उनका सामना एक खूंखार बाघ से हो गया था । और उन्होंने देखते ही देखते अकेले एक खुखड़ी से उस बाघ को मार गिराया । बस तभी से लोग उन्हें ‘बाघा जतिन’बुलाने लगे ।
 
बाघा जतिन यानी यतीन्द्रनाथ मुख़र्जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे नायक हैं जिनकी प्रतिभा और साहस का अंग्रेज अधिकारी भी कायल थे । इस भारतीय क्रांतिकारी की मृत्यु के बाद एक ब्रिटिश अधिकारी ने उनके लिए कहा था, “अगर यह व्यक्ति जिवित होता तो शायद पूरी दुनिया का नेतृत्व करता।" कोलकाता पुलिस के डिटेक्टिव डिपार्टमेंट के हेड और बंगाल के पुलिस कमिश्नर रहे चार्ल्स टेगार्ट के कथन से अंदाजा लगाया जा सकता है, चार्ल्स टेगार्ट ने कहा था कि, "अगर बाघा जतिन अंग्रेज होते तो अंग्रेज लोग उनका स्टेच्यू लंदन में ट्रेफलगर स्क्वायर पर नेलशन के बगल में लगवाते." 

यतीन्द्रद्रनाथ मुख़र्जी का जन्म पूर्वी बंगाल के कायाग्राम, कुष्टिया जिला में 7 दिसंबर 1879 को एक कुलीन बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था । पांच साल की छोटी उम्र में ही पिता के निधन के कारण बहुत कम उम्र में ही उन्हें अपना घर-परिवार संभालना पड़ा. शिक्षा समाप्त करने के बाद वे अपने परिवार का खर्च चलाने के लिए स्टेनोग्राफी सीखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय से जुड़ गए ।

उनकी सोच अपने समय से बहुत आगे थी. कॉलेज में पढ़ते हुए, उन्होंने सिस्टर निवेदिता के साथ राहत-कार्यों में भाग लेने लगे. सिस्टर निवेदिता ने ही उनकी मुलाकात स्वामी विवेकानंद से करवाई । ये स्वामी विवेकानन्द ही थे, जिन्होंने जतिंद्रनाथ को एक उद्देश्य दिया और अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित किया । उन्हीं के मार्गदर्शन में जतिंद्रनाथ ने उन युवाओं को आपस में जोड़ना शुरू किया जो आगे चलकर भारत का भाग्य बदलने का जुनून रखते थे ।

इसके बाद वे श्री अरबिंदो के सम्पर्क में आये. जिसके बाद उनके मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ विद्रोह की भावना और भी प्रबल हो गयी । अरबिंदो की प्रेरणा से उन्होंने 'यूगांतर' नामक गुप्त संगठन बनाई । यह संस्था नौजवानों में बहुत मशहूर थी । यूगांतर की कमान यतीन्द्रनाथ ने स्वयं संभाला ।

1905 में बंगाल विभाजन के बाद देश में उथल-पुथल शुरू हो चुकी थी. अंग्रेजों के खिलाफ़ जितना जनता का आक्रोश जितना बढ़ रहा था ब्रिटिश हुकूमत का उत्पीड़न भी उतना तीव्र होता जा रहा था । ऐसे में बाघा जतिन ने 'आमरा मोरबो, जगत जागबे'का नारा दिया, जिसका मतलब था कि 'जब हम मरेंगे तभी देश जागेगा'! उनके इस साहसी कदम से प्रेरित होकर बहुत से युवा यूगांतर पार्टी में शामिल हो गये.

जल्द ही जुगांतर के चर्चे भारत के बाहर भी होने लगे. अन्य देशों में रह रहे क्रांतिकारी भी इस पार्टी से जुड़ने लगे. अब यह क्रांति बस भारत तक ही सिमित नहीं थी, बल्कि पूरे विश्व में अलग-अलग देशों में रह रहे भारतीयों को जोड़ चुकी थी । बाघा जतिन ने सशस्त्र तरीके से 'पूर्ण स्वराज' प्राप्त करने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई.  

साल 1908 में बंगाल में कई क्रांतिकारियों को मुजफ्फरपुर में अलीपुर बम प्रकरण में आरोपित किया गया. लेकिन बाघा जतिन गिरफ्तार नहीं हुए थे. उन्होंने गुप्त तरीके से देशभर के क्रांतिकारियों को जोड़ना शुरू किया. वे बंगाल, बिहार, उड़ीसा और संयुक्त प्रांत के विभिन्न शहरों में क्रांतिकारियों से संपर्क स्थापित करने में लग गये.   

इसी दौरान 27 जनवरी,1910 को पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उनके खिलाफ़ कोई ठोस प्रमाण न मिलने के कारण कुछ दिनों के बाद छोड़ दिया गया. जेल से अपनी रिहाई के बाद, बाघा जतिन ने राजनीतिक विचारों और विचारधाराओं के एक नए युग की शुरूआत की. उनकी भूमिका इतनी प्रभावशाली रही कि क्रांतिकारी रासबिहारी बोस ने बनारस से कलकत्ता स्थानांतरित होकर जतिन्द्रनाथ मुखर्जी के नेतृत्व में काम करना शुरू कर दिया था.

लेकिन उनकी गतिविधियों पर ब्रिटिश पुलिस की नज़र थी और इस वजह से, बाघा जतिन को अप्रैल 1915 में बालासोर जाना पड़ा । उड़ीसा के जंगलों और पहाड़ियों में चलने के दो दिनों के बाद वे बालासोर रेलवे स्टेशन तक पहुंचे. 

9 सितंबर 1915 को जतिन्द्रनाथ मुखर्जी और उनके साथियों ने बालासोर में चाशाखंड क्षेत्र में एक पहाड़ी पर बारिश से बचने के लिए आश्रय लिया. क्रांतिकारियों और ब्रिटिश पुलिस के बीच 75 मिनट चली मुठभेड़ में अनगिनत ब्रिटिश घायल हुए तो क्रांतिकारियों में चित्तप्रिय रायचौधरी की मृत्यु हो गई । जतिन और जतिश गंभीर रूप से घायल हो गए थे. बाघा जतिन को बालासोर अस्पताल ले जाया गया जहां उन्होंने 10 सितंबर, 1915 को अपनी अंतिम सांस ली। मृत्यु के पहले उनका रक्तबमन हो रहा था, उगलते खून को देख कर उन्होंने बोला - "इतना खून था शरीर में, सौभाग्य से प्रत्येक बिंदु अर्पित करके गया देशमातृका की चरणों मे ।"

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