मरणासन्न अवस्थामें करनेयोग्य कार्य

मरणासन्न_अवस्थामें_करनेयोग्य_कार्य।।
देह-त्यागके पहलेके कृत्यमृत्युके अवसरपर सावधान हो जाय!
जब कोई व्यक्ति कहीं जाने लगता है तब उसके परिवारके सदस्य उसकी उस यात्राको सुखमय बनानेके
लिये तन-मन और धनसे जुट जाते हैं। किंतु प्राय: देखा जाता है कि लोग अपने परिवारके किसी सदस्यकी
मृत्युके अवसरपर शोकमें डूब जाते हैं और रोना-धोना प्रारम्भ कर देते हैं। वे भूल जाते हैं कि मृत्यु भी एक यात्रा है !

और इसको भी उन्हें सुखमय बनानेका प्रयास करना चाहिये। सच तो यह है कि मृत्यु 'यात्रा' ही नहीं, अपितु 'महायात्रा' है। इसलिये परिवारके प्रत्येक सदस्यका यह कर्तव्य हो जाता है कि अपने प्रियजनकी इस महायात्राको सुखमय बनानेके लिये पहलेसे भी अधिक प्रयास करे।
यदि कोई व्यक्ति मृत्युके अवसरपर मरणासन्नसे एक बार भी ॐ, राम, कृष्ण, शिव, नारायण' आदि नामका मनसे भी स्मरण और उच्चारण करवा देता है तो उसने सचमुच अपने प्रियजनकी इस महायात्राको पूर्ण सफल बना दिया। 

जिस लक्ष्यको पानेके लिये यह मरणासन्न प्राणी अनादि कालसे यात्रा-पर-यात्रा करता चला आ रहा था, उस लक्ष्यको इस आत्मीयने नामोच्चारण करवाकर प्राप्त करा दिया। अतः सभी परिजनोंको अन्तिम समयमें उच्च स्वरसे भगवन्नामका संकीर्तन करना चाहिये तथा मरणासन्न व्यक्तिके कानमें भगवन्नाम-स्मरण करनेकी प्रेरणा करनी चाहिये।
 
#विशेष--क्या न करे?

भूलकर भी रोये नहीं; क्योंकि इस अवसरपर रोना मृत प्राणीको घोर यन्त्रणा प्रदान करता है।
रोनेसे जो आँसू और कफ निकलते हैं, इन्हें उस मृत प्राणीको विवश होकर पीना पड़ता है। यह साधारण
यात्रा तो है नहीं, साधारण यात्रामें यात्री सब कामके लिये स्वतन्त्र होता है। वह चाहे तो आत्मीयजनोंके
दिये पाथेयको खाये या न खाये, परंतु मरनेपर उसकी यह स्वतन्त्रता छिन जाती है और आत्मीयोंके दिये
हुए पाथेयको ही उसे खाना पड़ता है। शास्त्रने बताया है

"श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः । 
अतो न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः स्वशक्तितः"॥
(याज्ञवल्क्यस्मृति, प्रायश्चित्ताध्याय १ । ११; ग०पु०, प्रे० १५ । ५८)

अर्थात् मृत प्राणीके लिये आत्मीयजनोंको भूलकर भी नहीं रोना चाहिये, अपितु उसके परलोकको
सुधारनेके लिये डटकर प्रयास करना चाहिये। रोनेसे आँखोंसे जो आँसू और नाक एवं मुँहसे जो कफ निकलते
हैं, मृत प्राणीको इन्हें ही विवश होकर खाना-पीना पड़ता है।
इस अवसरपर रोकर हम अपने मृतजनको केवल कफ और आँसू-जैसी घृणित वस्तु ही नहीं खिलातेपिलाते अपितु स्वर्गसे भी नीचे गिरा देते हैं

"शोचमानास्तु सस्नेहा बान्धवाः सुहृदस्तथा । 
पातयन्ति गतं स्वर्गमश्रुपातेन राघव'॥
(वाल्मीकीय रामायण)

"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् । 
यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्"॥ 
(गीता ८।१३)
(ॐकारका यह उच्चारण योगियों और संन्यासियोंके लिये विहित है।)

"प्राणप्रयाणसमये यस्य नाम सकत्स्मरन ॥ 
नरस्तीत्वा भवाम्भोधिमपारं याति तत्पदम"। (अध्या०रामा०, सन्दरका०१४-५)
.
 प्राण-प्रयाणके समय जिनके नामका एक बार स्मरण करनेसे ही मनुष्य अपार संसार-सागरको पारकर उनके परम धामको चला
जाता है 

#विशेष--मरणासन्न अवस्थामें करनेयोग्य कार्य।।

कहाँ तो मृतात्मा अपने पुण्यके बलसे स्वर्ग जा पहुँचा था और कहाँ हमारे रोनेकी भूलने उसे वहाँसे
खींचकर नीचे गिरा दिया। यह भूल कितनी पीड़ा देनेवाली हो गयी? अतः नरावतार अर्जुनकी तरह शोकमोहको दूरकर मृत व्यक्तिका परलोक सँभालनेके प्रयासमें डट जाना चाहिये। मरणासन्न रोगीके सामने
शोकका प्रदर्शन होना ही नहीं चाहिये।

शास्त्रने रोनेका भी विधान किया है, किंतु कब? जब दाहक्रियाके द्वारा उसके शरीरको संस्कृत करने
लगते हैं; तब कपालक्रिया करनेके बाद परिजनोंको उच्च स्वरमें रोना चाहिये। अब उसे अपने जनोंके प्रेमका
स्वाद चाहिये। इस अवसरपर अपने प्रियजनोंके प्रेमाश्रुका आस्वाद पाकर वह प्रफुल्लित हो उठता है

रोदितव्यं ततो गाढमेवं तस्य सुखं भवेत्।
(गरुडपुराण, प्रेतखण्ड १५।५१)

 देखा जाता है कि कुछ लोग शोक के आवेश में आकर मरणासन्न प्राणीसे पूछते हैं-'आप मुझे
पहचान रहे हैं ? मैं आपका पुत्र हूँ', 'मैं आपका मित्र हूँ' आदि-ऐसी चेष्टा कभी न करे; क्योंकि यह
भयावह भूल है। इस कुकार्यसे हम मृतात्माको दुनियामें घसीट लाते हैं, बन्धनमें डाल देते हैं। हमारी चेष्टा
तो ऐसी होनी चाहिये कि जिससे मरणासन्नको सतत भगवान्का ही स्मरण होता रहे ताकि संसारकी एक
क्षणके लिये भी उसे स्मृति न हो। अतः भगवान्के नामोंका ही स्मरण करायें।

जबतक गाँवमें, पास-पड़ोसमें अथवा घरके समीप शव विद्यमान हो तबतक आहार_विहार निषिद्ध है।

मरणासन्न व्यक्तिको आकाशतलमें, ऊपरके तलपर अथवा खाट आदिपर नहीं सुलाना चाहिये।
अन्तिम समयमें पोलरहित नीचेकी भूमिपर ही सुलाना चाहिये।

(आ) क्या करे?
(१) प्राणोत्सर्गसे पूर्व यदि सम्भव हो तो प्राणीको गंगाके पावन तटपर ले जाय। उस समय नारायण, श्रीराम, श्रीकृष्ण, हरि, शिव आदि नामका उच्चारण निरन्तर होता रहे।

(२) गंगातटपर ले जाना सम्भव न हो तो घरपर ही पोलरहित नीचेकी भूमिपर गोबर-मिट्टी तथा गंगाजल से भूमिको शुद्ध कर दक्षिणाग्र कुश बिछा दे तथा तिल और कुश बिखेर दे। सम्भव हो तो कुशासन बिछाकर नयी अथवा धोयी हुई सफेद चादर बिछा दे, जिसमें नीला- _काला निशान न हो।

(३) यथासम्भव गोमूत्र, गोबर तथा तीर्थके जलसे, कुशके जलसे और गंगाजल आदिसे स्नान करा
दे अथवा गीले वस्त्रसे बदन पोंछकर शुद्ध कर दे।

(४) यदि नहानेकी स्थिति न हो तो कुशसे जल छिड़ककर मार्जन करा दे तथा नयी धोयी हुई धोती पहना दे।

(५) यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति हो तो उसे एक जोड़ा नूतन यज्ञोपवीत भी पहना दे।

(६) तुलसीकी जड़की मिट्टी और इसके काष्ठका चन्दन घिसकर सम्पूर्ण शरीरमें लगा दे। इससे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और विष्णुलोक प्राप्त होता है।

१. रोगिणोऽन्तिकमासाद्य शोचनीयं न बान्धवैः ॥ (गरुडपुराण)
२. ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कामतोऽकामतोऽपि वा । गङ्गायां च मृतो मर्त्यः स्वर्ग मोक्षं च विन्दति ॥ (ब्रह्मपुराण)
ज्ञानसे अथवा अज्ञानसे, इच्छासे अथवा अनिच्छासे जो गंगामें मरता है वह स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करता है।

 भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशीको जल जहाँतक पहुँचता है, उस भूमिको गर्भ कहते हैं। गर्भसे डेढ़ सौ हाथतककी भूमिको तीर (तट) कहते हैं, तोरसे दो कोसतककी भूमिको क्षेत्र कहते हैं।

३. आसन्नमरणं ज्ञात्वा पुरुषं स्नापयेत् ततः । गोमूत्रगोमयसुमृत्तीर्थोदककुशोदकैः॥
वाससी परिधाथि धौते तु शुचिनी शुभे।
 दर्भाण्यादी समास्तीर्य दक्षिणाग्रान्विकीर्य च ॥ (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ३२।८५-८६)

४. श्राद्धविवेक।

५. तुलसीमृत्तिकाऽऽलिप्तो यदि प्राणान् विमुञ्चति । 
याति विष्वन्तिकं नित्यं यदि पापशतैर्युतः ॥
 (गरुडपुराण, वी०मि०पू०)

 मृतिकाले तु सम्प्राप्ते तुलसीतरुचन्दनम्। 
 भवेच यस्य देहे तु हरिभूत्वा हरिं व्रजेत् ॥ (पद्मपुराण)

(७) भस्म, गंगाकी मिट्टी, गोपीचन्दन लगा दे।
(८) गोबरसे लिपी हुई और तिल बिखेरी गयी भूमिपर दक्षिणाग्र-कुशोंको बिछाकर मरणासन्नको उत्तर
या पूर्वकी ओर सिर करके लिटा दे।
(९) सिरपर तुलसीदल रख दे। चारों ओर तुलसीके गमलोंको सजाकर रख दे।
(१०) ऊँची जगहपर शालग्रामशिलाको स्थापित कर दे।
(११) घीका दीपक जला दे।
(१२) भगवान्के नामका निरन्तर उद्घोष होता रहे।
(१३) यदि मरणासन्न व्यक्ति समर्थ हो तो उसीके हाथोंसे भगवान्की पूजा करा दे अथवा उसके
पारिवारिकजन पूजा करें।
(१४) मुखमें शालग्रामका चरणामृत डालता रहे। बीच-बीचमें तुलसीदल मिलाकर गंगाजल भी डालता
रहे। इससे उस प्राणीके सम्पूर्ण पाप नष्ट होते हैं और वह वैकुण्ठलोकको प्राप्त करता है।
(१५) उपनिषद्, गीता, भागवत, रामायण आदिका पाठ होता रहे।
(१६) किसी व्रत आदिका उद्यापन न हो सका हो तो उसे भी कर लेना चाहिये।
(१७) अन्तिम समयमें दशमहादान-अष्टमहादान तथा पंचधेनुदान करना चाहिये। शीघ्रतामें यदि प्रत्यक्ष
वस्तुएँ उपलब्ध न हों तो अपनी शक्तिके अनुसार निष्क्रय-द्रव्यका उन वस्तुओंके निमित्त संकल्प कर
ब्राह्मणको दे दे।
(१८) प्रत्येक दानमें प्रतिज्ञासंकल्प, जिस ब्राह्मणको दान दिया जाय उसका वरणसंकल्प, दानका मुख्य
संकल्प तथा अन्तमें दानप्रतिष्ठाके निमित्त सांगतासिद्धिका संकल्प करना चाहिये।
१. दर्भाण्यादौ समास्तीर्य दक्षिणाग्रान्विकीर्य च॥
तिलान् गोमयलिप्तायां भूमौ तत्र निवेशयेत् ॥
 प्रागुदक् शिरसं वापि । (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ३२।८६-८८)
२. (क) शालग्रामशिला तत्र तुलसी च खगेश्वर ॥
विधेया सन्निधौ सर्पिर्दीपं प्रज्वालयेत् पुनः । 
नमो भगवते वासुदेवायेति जपस्तथा ॥ 
समभ्यर्च्य हृषीकेशं पुष्पधूपादिभिस्ततः ॥
प्रणिपातैः स्तवैः पुष्पैनियोगेन पूजयेत् ।
 (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ३२।८८-९१)

शालग्रामशिला यत्र तत्र सन्निहितो हरिः । 
 तत्सन्निधौ त्यजेत् प्राणान् याति विष्णोः परं पदम् ॥ (शुद्धितत्त्व, पूजारलाकर)

 तुलसीकानने जन्तोर्यदि मृत्युभवेत् क्वचित्। 
 स निर्भत्स्य यमं पापी लीलयैव हरिं व्रजेत् ॥ (शुद्धितत्त्व)

शालग्रामशिलातोयं यः पिबेद् बिन्दुमात्रकम् । 
 स सर्वपापनिर्मुक्तो वैकुण्ठभुवनं व्रजेत् ॥
ततो गङ्गाजलं दद्यात् । (गरुडपुराण-सारोद्धार ९।२२-२३)

प्रयाणकाले यस्यास्ये दीयते तुलसीदलम् । 
निर्वाणं याति पक्षीन्द्र पापकोटियुतोऽपि वा॥ 
 (गरुडपुराण, वी०मि०पू०)
 धर्म शास्त्र के अनुरूप कर्मकांड करने वालों के लिए _उपयोगी ।अन्य मत ,पंथ आदि के लोग दूर रहें।।
Arun Shastri जबलपुर
प्रश्न नहीं स्वाध्याय करें।

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