विश्वकर्मा
इस पोस्ट को प्रत्येक मानव को ध्यान से पूरी पढ़ना चाहिए और चिंतन, मनन करना चाहिए। इसे प्रमाणों के आधार पर लिखा गया है।
वैदिक साहित्य में विश्वकर्मा का देवत्व उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित है।
विश्वकर्मा को सृष्टि कर्ता के रूप में ख्याति प्राप्त है। वेदों में विश्वकर्मा देव को प्रजापति, इन्द्र, सविता,विष्णु, शिव, पिता, कर्ता, महादेव, भुवन, शंभू, परमात्मा, ईश्वर , विराट, पुरुष, ज्येष्ठ ब्रह्म, अग्नि आदि अनेकों नामों से पुकारा गया है।
धाता - विधाता - - विधान करने वाला, रचने वाला, बनाने वाला, उत्पन्न करने वाला, सृष्टिकर्ता, ब्रह्मा या ईश्वर को विधाता कहा गया है। इसे धाता भी कहा गया है, जिसका अर्थ है पालन करने वाला, धारण करने वाला या रक्षा करने वाला। ऋग्वेद में आदित्य देव को विश्वकर्मा, धाता, और विधाता कहा है- विश्वकर्मा विमना आद्विहाया धाता विधाता प्रमोद स॑दृक् ( ऋग्वेद ८,३,१७)। निरूक्त की दुर्गवृत्ति में सब भूतों को उत्पन्न करने वाले को धाता तथा आजीविका आदि कर्मों में प्रवृत्त करने वाले को विधाता कहा गया है- दाता उत्पादयिता सर्वभूतानाम् ....... विधाता जीवनस्य जीवता॑ च साध्वसाधुषु कर्मसु प्रवृतमानाना॑ ( निरुक्त दुर्गवृत्ति १०,२६) आगे नीरुक्त में वर्णित है कि धाता ही सबका विधाता है - दाता सर्वस्य विधाता ( निरुक्त ११,१०) । वह परमेश्वर ही विष्णु, नारायण, अर्क, सविता, धाता, विधाता, इन्द्र है - विष्णुर्नारायणोऽर्क: सविता दाता विधाता सम्राडिन्द्र इति ( मैत्रा०, ५,८)
एक ही परमात्मा को वेदों में अनेकों नामों से पुकारा गया है। ऑर यज्ञादि में हुई भूलों के लिए भी, याजक गण विश्वकर्मा देव से ही क्षमा याचना करते हैं, ऐसा संविधान है।
लेकिन पुराणों में विश्वकर्मा देव को केवल एक इंजिनियर के रूप में व कारीगरों के भगवान के रूप में, मेसन के भगवान के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
जो पूर्णतः गलत है।
वेद सत्य है और वेद ही अंतिम प्रमाण है। वेदों के ऊपर कोई ऊंगली नहीं उठा सकता।क्योंकि वेद को अंतिम प्रमाण व सत्य माना गया है।
वैदिक साहित्य में विश्वकर्मा देव के विषय में क्या लिखा है ?
वह इस प्रकार है -
सृष्टि निर्माण के जितने भी कार्य है सभी विश्वकर्मा देव के द्वारा किए गए थे।
विश्वकर्मा को सभी देवों में महान माना गया है।ऋ०,८,९८,२)
सम्पूर्ण संसार का इन्हे धाता, विधाता कहा जाता है। ऋ०,१०,८२,२)
अथो विश्वकर्मने विश्र॔ वै तेवा॓ कर्म कृत जित' भवति, ( शतपथ ब्राह्मण ४,६,४,५)
भगवान विश्वकर्मा को दिव्य बताया है उनके हाथ में एक अयोमय वासी ( कुल्हाड़ी या फरसा) रहता है जिससे वे शत्रुओं का संहार करते हैं।( ऋग्वेद ८/२९/३)
निरुक्त कार यास्क ने विश्वकर्मा को सभी का कर्ता विवेचित किया है- विश्वकर्मा सर्वस्यकर्ता, ( नि० १०,२५)
विश्वकर्मा को अनेक स्थानों पर प्रजापति कहा गया है- प्रजापतिर्वे विश्वकर्मा ( शत ० ब्रा ० ८,२,१,१० व ७,४,३,५)( गोपथ ब्रा ० १,१,४)
प्रजापति प्रजा: सृष्ठवा विश्वकर्माऽ भवत (ऐत० ब्रा ० ४,२)
इसी स्थान पर विश्वकर्मा को इन्द्र कहा है- इन्र्दो व वृतहत्वा विश्वकर्माऽभवत ( ऐत० ब्रा ० ४,२) ( जब परमात्मा पशुओं की व मनुष्यों की रचना करता है तो उसे सविता कहते हैं, गायत्री मंत्र ओइम भू:........ ये परमात्मा के सविता रूप को ही समर्पित है।
काल:प्रजाअसृजत कालोअग्रेप्रजापतीम्।
स्वयम्भू: कश्यप:कालात तप:कलाल जायते।।( अ०,१९,५३,१०)
अर्थ- सृष्टि के आरम्भ में काल में सर्व प्रथम प्रजापति का सृजन किया। तत्पश्चात प्रजाजनो की उत्पत्ति की। काल स्वयम्भू ( स्वयं उत्पन्न) है। सबके दृष्टा कश्यप काल में प्रादुर्भुत हुए। तथा काल से ही तप शक्ति उत्पन्न हुई।
अंगिरा व अथर्वा ( कालेयम) ऋषि, अपने उत्पादन करता ( स्वयंभू) इसी काल में अधिष्ष्ठित है- कालेऽमयम॑न्गिरादेवोऽथर्वा....( अथर्व ०,१९,५४,५)
ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी ने महर्षि दद्दड़ को अंगिरस गोत्र का बताया है। वेदों में प्रजापति का दद्दड़ गोत्र बताया है। अंगिरस गोत्र में दद्दड़ नामक ऋषि हुए। वे स्वयंभु अदरथ के पौत्र तथा महर्षि चंडात के पुत्र थे। ( ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी, अतीत का दिग्दर्शन, खण्ड ३) वायु मुनि के वंश में महर्षि कुक्कुट अंगिरस मुनि हुए थे, कुक्कुट अंगिरस मुनि के सातवे बाबा श्रृंगी ऋषि थे। उद्दालक मुनि के ( अथर्वा) कुल में जन्मे दलाभ्य मुनि का पुत्र श्वेत केतु था। ( छंदोंग्योपनिषद अध्याय ६ के मंत्र में श्वेतकेतु को अरुण का पोत्र और उद्दालक का पुत्र बताया है।) कठोपनिषद अ०,१ मंत्र १० में नचिकेता ने बताया कि मेरे पिता गोतम पुत्र उद्दालक। याज्ञवल्क्य की दूसरी पत्नि मैत्रैयी शांडिल्य गोत्र की थी। विभांडक ऋषि महाराज श्रोत्रिय ब्राह्मण कहलाते थे। उद्दालक गोत्र को वशिष्ठ ( वरिष्ठ) माना गया है। आदि ब्रह्मा के पुत्र का नाम विराट था। महर्षि पिप्पलाद जी ,करकेदु ऋषि के पुत्र व वायु मुनि के पौत्र थे। महर्षि भारद्वाज अंगिरस गौत्रिय थै। महर्षि भूंजु शांडिल्य गोत्र में जन्मे थे, इनके पिता का नाम सोपन्ग ( त्रित केतु ऋषि )था।
महर्षि शांडिल्य अंगिरस के ३००० वे पड़पौत्र थे। सोमकेतू ऋषि अ॑गिरस गोत्र में जन्मे महर्षि मुदगल के पुत्र थे। करकेतु ऋषि ( शिव महाराज) रावण के गुरु थे। महर्षि दयानंद सरस्वती जी, महाभारत काल के अटूटि ऋषि थे। भूंजू ऋषि वायु मुनि के १५, हजार वे प्रपोत्र कहलाते थे।( ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी, अतीत का दिग्दर्शन खण्ड तीन, ऐतिहासिक खण्ड)
सविता व अग्नि को प्रजापति कहा है-
प्रजापतिर्वा अग्नि ( जैमि० ब्रा ० १,६)
सविता व प्रजापति ( जैमि० ब्रा ० १,६)
प्रजापति को भुवन का पिता कहा है-
प्रजापतिर्वै भुवनस्य पति (तैति०स० ३,४, ८६)
प्रजापति के पुत्रो के नाम इस प्रकार है- १- पतंग २- यज्ञ ३- विष्णु, ४-स॑वरण, ५- हिरण्यगर्भ ।
इनका ऋषित्व ऋग्वेद में निर्दिष्ट है।
प्रजापति का एक कार्य मनुष्यों व पशुओं का सृजन करना है ( तैति० ब्रा ० २,१,१,४)
अथर्वा को प्रजापति कहा है। अथर्वा वै प्रजापति:।( गो ० ब्रा ०, १,१,४)
पौराणिक संदर्भ में त्वष्टा देव को ही विश्वकर्मा कहा जाता है। त्वष्टा देव को ही विष्णु शिव, सविता कहा है इन्होंने ही सविता रूप में , भिन्न भिन्न रूपों में प्रजा की रचना की-
देव त्वष्टा सविता विश्र्वरुप:पुषोज प्रजा पुरूधा नजान।
इमा चविश्रा भुवनस्य महद्देवानाम सुरत्व में कम।।
(ऋ०३,५५,१९)
अर्थ- सबके उत्पादक, अनेक रुपों से युक्त त्वष्टा देव! अनेक रूपों की प्रजा को उत्पन्न करते हैं, ये ही इन्हे परिपुष्ट करते हैं, ये सम्पूर्ण भुवन इन्हीं के द्वारा रचे गए हैं। समस्त देवों की महान शक्ति एक है।
त्वष्टा देव पशुओं व मनुष्यों का सृजन कर उनका लिंग निर्धारित करते हैं। त्वष्टा रूपाणमीशे ( तैत्ति० ब्रा ०,१,४,७,१)
त्वष्टा वैध पशुना॑मिथुनाना॑ रुप कृत।( तैत्ति० ब्रा ०,३,८,११,२)
है अग्नि देव! साधकों के लिए आप श्रेष्ठ पराक्रम करने वाले त्वष्टा देव है। सभी स्तुतियां आपके लिए है। आप हमारे मित्र व सजातीय बंधु है।( अथर्व ०,२,१,४)
है अग्नि देव। आप ही इन्द्र, विष्णु देव,ब्रह्मणस्पति तथा ब्रह्मा है। आप ही वरुण, अर्यमा व सूर्य है।( अथर्व ०,२,१,२-३)
भृगु को वरुण पुत्र कहा है। ऋग्वेद के दो सुक्त ९,६५ व १०,१९ के ऋषि भृगु वारुणी है जिससे उनकी वरुण के पुत्र होने की पुष्टि होती है।
निरूक्त ने भृगु को अंगिरा का पुत्र बताया है। अर्चिषि भृगु स॑बभूव। भृगुर्भज्यमानोनदेहे अ॑गारेष्व॑गिरा।।( नि०,३,१७) श०ब्रा० में इन्हे वरुण का पुत्र बताया है।(शत ० ब्रा ०,११,६,१,१)
अथर्व ०,२,५, में भृगु के साथ भृगु अाथर्वण पद संयुक्त है। इससे स्पष्ट है कि ये अथर्वा के वंशज हैं।
शुक्र- (अथर्व, 2,11) ये जाबाला के वंशज होने से जाबाल पद से संयुक्त है। पौराणिक संदर्भ में इन्हे कवि का पुत्र तथा भृगु का पोत्र कहा गया है जो दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य कहलाए।
वेन- आचार्य सायन ने भृगु को वेन का पुत्र बताया है- ( अथर्व ०२,१) ब्राह्मण ग्रंथों में वेन को इन्द्र कहा है- इन्द्र उ वै वेन: ( कौषि०ब्रा०८,५) पौराणिक संदर्भ में इन्हे राजा अंग व सुनीथा कापुत्र माना गया है। ये कुरु के पौत्र व चाक्षुस मनु के प्रपौत्र थे।( अथर्व०,२,१)
अथर्वा को वरुण से उत्पन्न माना गया है।( अथर्व ०,५,११,११)
है अग्नि देव! आप सम्यक रूप से विश्वरूप बने। विश्वरूप ( विराट रूप) ( अथर्व ०,४,१४,९) त्वष्टा देव के पुत्र को विश्व रूप कहा है।
विश्वकर्मा का भी ये ही कार्य है वर्णित किया है- मनुष्यों व पशुओं का सृजन करना ( प्रजापति प्रजा सृष्ठवा विश्वकर्मा भवत( ऐत० ब्रा ० ४,२)
प्रजापति को ब्रह्मा कहा है- ( अा ० गृह ०३,४,) विश्वकर्मा को ब्रह्मा कहा है और प्रजापति को विश्व का प्रथम याज्ञिक कहा है।( शत ० ब्रा ० २,४,४,७) विश्वकर्मा ने विश्व का प्रथम यज्ञ किया था। शत ० ब्रा ०१३,७,१,१५) विश्वकर्मा ने विश्व का पहला सर्वमेध यज्ञ व अश्वमेध यज्ञ किया था।(ऐतरेय ब्रा०८/२१)( शतपथ ब्राह्मण,१३/७, व १४/१५) अथर्वऺगिरस को प्रथम आहुति कर्ता कहा है- मेल आहुत्यो है वाऽ एतादेवनाम्। यदथर्वागिरस:,। ( शत ० ब्रा ० ११,५,६,७)
ब्रृहस्पति को प्रथम यज्ञ कर्ता कहा है।( अथर्व० २०,९०,१)
अंगिराओ ने अग्नि को प्रज्जवलित करके सर्वप्रथम हविष्यान्न प्रदान किया था। (अथर्व २०,२५,५)
प्रजापति ने चमस बनाया था।( अथर्व ० १८,३,५४) त्वष्टा देव ने चमस का निर्माण किया था। ब्रहस्पति ने इन्द्र के लिए चमस का निर्माण किया था। अथर्वा ने इन्द्र के लिएचमस का निर्माण किया था। (अथर्व ०,१,१,३)
चमस क्या है ? तिरछे मुख वाला एवम् ऊपर की और पैंदी वाला एक चमस पात्र हैं। उसमे विश्वरूप यज्ञ निहित है। उसमे सात ऋषि गण इस महान शरीर की रचना हेतु विराजते हैं।अथर्व ०,१०,८,९) इसे वृहदारण्यक २,२,३,४, में इस प्रकार कहा है कि मानव शरीर का कपाल ऊपर पेंदी वाला पात्र हैं, सात ऋषि गण इसके पहरे दार है।( यज्ञ करते समय जो एक लोटे का पात्र रखते हैं वह चमस कहलाता है, इसमें समस्त देवों का वास होता है)
अथर्वा और अंगिरा को पिता तुल्य बृहस्पति कहा है।
अथर्वा के पुत्र बृहद्दिव थे। ऋ० ,१०,१२० के ऋषि है बृहद्दिव आथर्वण ।
बृहस्पति ने इन्द्र के लिए वज्र का निर्माण किया था।( अथर्व ०, ११,१२,१०)
त्वष्टा देव ने इन्द्र के लिए वज्र बनाया था।(ऋ०,१,१३२,२)
उश्ना ऋषि ने इन्द्र के लिए वज्र बनाया था।(ऋ०,५,२९,९)
इन्द्र देव को क्रांतदर्शी कहा है और उष्ना को क्रांतदर्शी का पुत्र कहा है-(ऋ०,१,१२१,१२)
शक्र - को कवि का पुत्र व भृगु का पोत्र कहा है, जो दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य हुए।( अथर्व०२,१)
ऊष्णा ऋषि पहले देवों के आचार्य, बाद में शुक्राचार्य नाम से मशहूर हुए। (ऋ०,८,८४) उश्णा ऋषि को ब्राह्मणों का आचार्य बताया गया है।( ऋ०८,८४, सा०भा०)
अह॑ मनुरभव॑ सूर्य श्राह॑कक्षीवाॅ ऋषिरस्मिविप्र:।
अह॑ कुत्समार्जुनेय॑ न्यून्जेऽह॑ कवि रुशना पश्यता मां।।
( ऋ०,४,२६,१)
अर्थ- ( इन्द्र का कथन है ) मै ही मनु रूप में हुआ। मै ही अर्जुनी पुत्र कुत्स हूं। मै ही क्रांति कारी ऊष्ना ऋषि हूं। है याजाकों आप मुझे भली भांति देख ले। मै ही आदित्य हूं। मै ही कक्षिवान हूं।
कक्षीवान ने स्वयं को अंगिरस गोत्र में उत्पन्न कहा है(ऋ०,१,११७,६) इन्द्र ने स्वयं को अंगिरस कहा है।
जो लोग वृह्तसास ( वेदाभ्यासी) अंगिरस ब्राह्मणों को सताते हैं उन्हें काल के जबड़ों ने पीस डाला।( अथर्व०,५,१९,२)
त्वष्टा को ब्राह्मणस्पती कहा है। ( अथर्व ०६,४,१)
प्रजापति को मरीचि कहा है- और कश्यप को मरीचि का पुत्र कश्यप कहा है-, कश्यप को ही मनु कहा है- मरीचि पुत्र: कश्यपो वैवस्वतो मनुर्वा,( ऋ०८,९,सा०भा०) प्रजापति को ही मरिचि कहां गया है- प्रजापत्यो मरिचिर्हि
ऋग्वेद ८,२९ के ऋषि कश्यप मारीच है। मरीचि पुत्र होने के कारण इन्हें कश्यप मारीच कहते हैं। ब्रहद्देवता कार में वर्णन मिलता है कि कि कश्यप ऋषि प्रजापति के पौत्र व मरीचि के पुत्र थे।
मरीच:मरिच:कश्यपो मुनि:( बृ०५,१४३) ब्रहद्देवतकार में कश्यप को प्रजापति का पौत्र व मरीचि का पुत्र बताया गया है।
( इन सबसे ये सिद्ध होता है कि प्रजापति व विश्वकर्मा एक ही है।)
प्रजापति को देवों के आदि देव के रूप में स्वीकार किया है। सबसे पहले सम्पूर्ण जगत में इनका ही जन्म हुआ था। विश्वकर्मा का जन्म सबसे पहले हुआ था। अथर्व ० ६,१२२,१ में ये ही कहा है-
एत॑ भागऺ परि ददामि विद्वन विश्वकर्मणं प्रथमजा ऋतस्य।
( अथर्व ० ६,१२२,१)
अर्थ- है समस्त जगत के रचियता देव( विश्वकर्मा देव)! आप सर्व प्रथम प्रकट हुवे है।
प्रजापति की सुता दक्षिणा भी ऋषि रूप में उल्लखित है- ये सविता ( सूर्य) की पत्नी थी।
त्वष्टा की पुत्री सूर्या त्वष्टा देव की पुत्री थी ।( ऋग्वेद, ( १०,१७,२) व ब्रहद्देवताकार )
त्वष्टा को ही विष्णु कहा जाता है। ये प्रजापति के पुत्र के रूप में वर्णित है-
गर्भाणा॑ कर्ता त्वष्टा नाम ऋषि प्रजापति पुत्रो विष्णुर्वा। ( ऋ० १०,१८४, सा०भा०)
आचार्य सायन ने विद्युत अग्नि को त्वष्टा कहा है- ( ऋ०१,९५,२,)
प्रजापति, विष्णु, भुवन और ऋभूओ को यज्ञ कहा गया है- यज्ञो व भुवनम्,,( तैत्ति०बब्रा० ३,३७,५) अथर्व० ६,४८,२, में ऋभुओ को यज्ञ कहा गया है। ( ऋभु यज्ञ के तृतीय सवन के देवता है)
प्रजापतिर्वै यज्ञ।( जै०ब्रा०१,२९०)
यज्ञ मंडप एवं वेदिका का निर्माण तथा यज्ञ की अन्य व्यवस्थाओं एवं यज्ञ का पूर्ण दायित्व विश्वकर्मा देव पर ही है-
या तेषामवया दुरिष्टि स्विष्टि॓ नस्ता॓ कृणवद, (अथर्व ०२,३५,१, सा० भा ०)
यज्ञादि कार्यों में हुई भूलों के लिए क्षमा प्रार्थना करने के निमित्त ,याजक गण विश्वकर्मा जी से ही क्षमा याचना करते हैं-
अदान्यान्तोसोमपान मन्य मानो यज्ञस्य विद्वान्त्समये न धीर:।
यदेनश्र्चकृवान ....... विश्वकर्मन् नमस्ते प्र मुञ्वा स्वस्तये ।।
( अथर्व ० २,३५,३)
इन्द्र को भी विश्वकर्मा कहा है - इन्द्रो व वृत॑हत्वा विश्र्वकर्माऽभवत,
प्रजापति को विश्वकर्मा कहा है- प्रजापति प्रजा सृष्ठवा विश्वकर्माऽभवत। ( ऐत० ब्रा० ४,२ )
( प्रजापति शुरू में एकांगी थे, इन्हे परमात्मा नाप से संबोधित किया गया है, इनको क नाम से संबोधित किया है)
विश्वकर्मा देव को तीनों भुवनो का राजा कहा है - ( शत ० ब्रा ० १३,७,१,१५) ( तीन भुवन है भु: भुव: स्व:)
विश्वकर्मा को सर्वद्रष्टा ( सभी और देखने वाला ) कहा है। नाम धारण करने के बाद यह सृष्टि उन्हीं में विलीन हो जाती है-
यो न जनिता यो विधाता धामनि वेद भुवनानि विश्वा।
यो देवाना' नामधा एक एवं त' सप्रशन' भुवना यंतयन्या।।
( ऋग्वेद १०,८२,३) ( सारी सृष्टि, वेद इन्हीं में लीन हो जाते है)
विश्वकर्मा देव को सप्त ऋषियों से युक्त कहा है -
विश्वकर्माण' ते सप्तॠषिवन्तमृच्छन्तु ।
ये माधायव उदीच्या दिशोऽ भिदासातॄ।।( अथर्व ०१९,१८,७) अथर्व ०१९,१७,७) में लिखा है विश्वकर्मा हमे सप्त ऋषियों के साथ उत्तर दिशा में हमे संरक्षण प्रदान करे- विश्वकर्मा मा सप्तॄषिभिरूदीच्या दिशु: पातु......।
ऋग्वेद १०,८१, सुक्त के देवता है विश्वकर्मा( भुवन) तथा ऋषि विश्वकर्मा भौवन है।
देवता है भुवन सृजेता परमात्मा तथा उसके दृष्टा ऋषि है भुवन से उत्पन्न सृजेता।( ये पिता पुत्र है। भुवन विश्वकर्मा देव को कहा है और उनसे उत्पन्न पुत्र को विश्वकर्मा भौवन कहा है। भुवन में अपत्य वाचक लगने से भौवन शब्द बना है।
यहां विश्वकर्मा जी को भुवन कहा गया है। भुवन का सामान्य अर्थ है लोक। परन्तु यज्ञ को भुवन का पर्याय माना गया है- यज्ञो वै भुवन॑ ।
इस प्रकार विश्वकर्मा भौवन पद से सयुक्त विश्वकर्मा द्वारा, विश्वकर्मा परमात्मा (भुवन) को संबोधित करते हैं। इस प्रकार १०,८१,८२, सुक्तो में विश्वकर्मा भौवन ऋषि ने विश्वकर्मा परमात्मा की स्तुति की है।
भुवन ( विश्वकर्मा ) देवता है और उनके पुत्र विश्वकर्मा भौवन ऋषि है। ( ये परमात्मा से पहली उत्पत्ति है मानव रूप में, जिन्हें स्वयंभु कह सकते हैं।)
भुवनो नाम आपत्य पुत्र इति। एवं च भुवन पुत्र त्वेन विश्वकर्मण: आंगिरस वंशजत्वं ऋषि गौत्रत्वं च।
(आश्वलायन सर्व अनुक्रमणिका)
अर्थ- भुवन आपत्य ऋषि , अपत्य ऋषि के पुत्र हुए, और भुवन ऋषि के पुत्र विश्वकर्मा भौवन हुए थे। ये अंगिरस वंश का ऋषि गोत्र है।
ब्रह्म- ब्रह्म को विश्व रूप कहते हैं, क्योंकि वह सर्वत्र व्याप्त है। अथर्ववेद में विश्व रूप एक राजा के रूप में अल्लखित है।( अथर्व ०,४,८,३)
ब्रहस्पति को सर्व ब्रह्म कहा है- ब्रहस्पत्यौ सर्व ब्रह्म।( गो ० ब्रा ०,२,१,३)
पौराणिक संदर्भ में विश्वकर्मा को त्वष्टा का रूप माना जाता है।
इनकी कन्या सरेण्यु थी, जिसे आगे चलकर संज्ञा के नाम से जाना गया। सरेण्यु का विवाह विवस्वान ( आदित्य- सूर्य ) से हुआ था। विवस्वान तथा सरेण्यु से यम- यमी, मनु की उत्पत्ति हुई। ब्रहद्देवताकार में ऐसा वर्णन है कि सरेण्यु सूर्य तेज से घबराकर, अपनी छाया छोड़ कर , अश्वी का रूप धारण करके वनों में चली गई वहां उसने अश्विनी कुमारो को जन्म दिया।( ये एक अलंकारिक वर्णन है )
इस प्रकार सरेण्यू ने पांच को जन्म दिया। ये सातवे मन्वन्तर में सभी इन्हीं की संतान हैं। ( ऊपर की कहानी प्रथम मन्वन्तर की है)
( ऊपर भुवन के दो पुत्र है १- विश्वकर्मा भौवन। २- साधनभौवन ।)
इनका दोनों का वेदों में वर्णन भी है और दोनों को ऋषित्व भी वेदों में प्राप्त है।
अब वेदों में त्वष्टा पुत्री सरेण्यू को देवत्व प्राप्त हुआ और त्रिशिरा त्वाश्ट्र को ऋषित्व प्राप्त हुआ था। त्वष्टा के एक पुत्र का और वर्णन आता है , आभूति त्वास्ट्र का। आभूति त्वाश्ट्र के शिष्य अयास्य अंगिरस थे। ( अयास्य अंगिरस हरिश्चंद्र के राजसूय यज्ञ में उदगाता थे । इन्हे यज्ञ विधान का मान्य अधिकारी मना जाता था )
इन्हीं त्वष्टा को ऋग्वेद की ऋषियों की अनुक्रमणी में अम्बरीष का पुत्र बताया है और अम्बरीष को वर्षागिरी का पुत्र बताया है इसी लिए अम्बरीष के साथ अपत्य वाचक वर्षागिरी लगा है और त्रिशिरा त्वास्ट्र को अम्बरीष वर्षागिरी का पुत्र सिंधु द्वीप आम्बरीष को बताया है।
वेदों में सिंधुद्वीप आम्बरीष का ऋषित्व ऋग्वेद १०,९ में है - आचार्य सायन ने इन्हे अम्बरीष का पुत्र कहा है - अम्बरीषस्य राज्ञ: पुत्र: सिन्थु द्वीप ॠषिस्त्वष्टुपुत्ररित्रशिरा वा, ( ॠ०१०,९, सा०भा०)
ऋग्वेद के एक सुक्त १,१०० में वर्षाबगिरी के पांच पुत्रो का वर्णन है इनके साथ अपत्यार्थक पद आम्बरीष सयुक्त हुआ है। पांचों के नाम इस प्रकार है - १- ऋजाश्व २- अम्बरीष ३- सहदेव ४- भयमान ५- सुराधस ।
अम्बरीष व उनके पुत्र सिंधुद्वीप आम्बरीश का वर्णन पुराणों में भी इच्छवाकु वंश में प्राप्त होता है। ( देखे सारी पुराणों में सूर्य वंश का वर्णन)
ब्रहद्देवताकर ऋषि शोनाक के अनुसार इन्द्र ने विश्व रूप का वध किया, उसके पाप निवारण के लिए सिंधु द्वीप ऋषि ने स्वयं जल का सिंचन कर ऋग्वेद के सुक्त १०,९ का गायन किया। ( बृह ० ६,१५२-१५३)
अम्बरीषस्य राज्ञ:पुत्र: सिन्थुद्वीप ॠषिस्त्वष्टपुत्ररित्रशिरा वा ( ऋग्वेद, १०,९, सायन भाष्य)
ऋग्वेद १०,१८४ के ऋषि है गर्भ कर्ता त्वष्टा अथवा विष्णु प्रजापत्य है। इसमें दोनों को एक ही बताया गया है - इनका ऋषित्व भी एक ही नाम से है - गर्भाणा॑ कर्ता त्वष्टा नामर्षि : प्रजापति पुत्रो विष्णुर्वा, ( ऋग्वेद, १०,१८४ सा ० भा ०)
विश्वकर्मा भौवन ऋषि - इनका ऋषित्व ऋग्वेद, १०,८१-८२ में निर्दिष्ट है।
इन्होंने अपने पिता भुवन ( विश्वकर्मा ) के विषय में लिखा है कि-
य इमा विश्वा भुवनानि जुह्वदृषिहोर्ता न्यसीदतॄ पिता न:।
स अशिषा द्रविणमिच्छमान: प्रथमच्छदवराॉ आ विवेश।।
( ऋग्वेद १०,८१,१)
अर्थ- ये ऋषि ( दृष्टा विश्वकर्मा ) पिता की तरह स्थित रह कर समस्त लोकों के निमित्त आहुतियां समर्पित करते हैं। वे संकल्प मात्र से विभिन्न संपदाओं को इच्छित रूप देते हुए, प्रथम उत्पन्न जगत को सव्याप्त करते हैं। तथा अन्य ( नव सृजित लोको) में प्रविष्ट होते है।
भावार्थ- सृजन के क्रम में परमात्म चेतना विश्वकर्मा का रूप धारण कर लेती हैं वहीं पोषण के लिए पूषा बन जाती है। उत्पत्ति विलय दोनों क्रम चलते रहते हैं। पहले वालों को सनव्यप्त करते हुए, दिव्य चेतना नवीन लोको में प्रवृत्त होती हैं।
विश्वकर्मा विमना आद्विहाया थाता विथाता परमोत सन्दृकॄ।
तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रि सप्तॠषीनृपर एकमाहु।।
( ऋग्वेद १०,८२,२,)
अर्थ- वे विश्वकर्मा देव विशिष्ट महाशक्ति सम्पन्न व्यापक विश्व के निर्माता , धारण कर्ता , महान तथा सर्व दृष्टा है। उन्हें सप्त ऋषियों से परे कहा गया है। उनके अभीष्ट की पूर्ति उन्हीं की पोषण शक्ति से होती है।
यो न; पिता जनिता यो विधाता धामणि वेद भुवनानि विश्वा।
यो देवाना॑ नामधा एक एवं त` सम्प्रश्र्न॑ भुवना यन्त्यन्या ।।
( ऋग्वेद, १०,८२,३,)
अर्थ- जो परमेश्वर सबका पालन करने वाले और उत्पन्न करने वाले है, जो सबके धारण कर्ता है, जो सम्पूर्ण लोकों व स्थानों के ज्ञाता हैं, जो एक होकर भी विविध देवो के विविध नामों को धारण करते हैं।
**""""""""****"""""""""""*"""""*""""""*"""""**"***"""**"*****""
सभी लोकों के प्राणी अंततः उन्हीं को प्राप्त होते है।
ऐसा वेदों में परमात्मा के किसी अन्य नामों के विषय में नहीं लिखा है। कि ये एक देव ही सभी देवों के विविध नामो को धारण करते हैं।
इससे विश्वकर्मा परमात्मा का देवत्व वेदों में सर्वोच्च स्थान पर है।
लेकिन पुराणों के अज्ञान में फस कर लोग परमात्मा के सही स्वरूप को नहीं जानते व मानते हैं। परमात्मा एक है, परमात्मा के नाम पर रूढ़ि नहीं होनी चाहिए। जहां परमात्मा के नाम पर रूढ़ि होती है उस समाज का पतन हो जाता है।
जो इस ब्रह्मांड के एक मात्र परमात्मा है, जो सभी देवों के नाम को धारण करते हैं, जो सबके पालनहार, सबको उत्पन्न करने वाले, सबके पिता है, परमपिता परमेश्वर है। इनको बहुत से लोग तो परमात्मा नहीं मानते, बहुत से इन्हे कारीगरों व मेसन का भगवान कह कर अज्ञानता का परिचय देते हैं और अंधकार मै फस कर पाप करते हैं। और परमात्मा के नाम पर रूढ़ि फैलाते हैं।
ये वेदों का कथन हैं कि जो परमात्मा के नाम पर रूढ़ि फैलता है उस का पतन हो जाता है। आजकल ये ही हो रहा है। लोग परमात्मा को भी नहीं जानते वे परमात्मा के स्थान पर किसी और की उपासना करते रहते हैं और पाप का भागीदार बनते हैं।
परमात्मा एक है , हमे उसी एक परमात्मा की उपासना करनी चाहिए जो निराकार है, निर्विकार है अनादि है। जो देता है लेता नहीं है।
एक परमात्मा है जो निराकार है।
विवस्वान के पुत्र मनु जो पृथ्वी पर जन्म लेने वाले प्रथम मानव थे। और विवस्वान के पुत्र यम पृथ्वी पर मृत्यु को प्राप्त होने वाले प्रथम व्यक्ति थे। ( अथर्व ० ६,४५,४६)
देवश्रवा यमायमन- ऋ०,१०,१७) के ऋषि है इन्हे यम का पुत्र होने से यमायमन कहा गया है। भरत पुत्र देवश्रवा और देववात का ऋषित्व ऋग्वेद में निर्दिष्ट है। भरत से ही भारत शब्द बना है।
ये मरीचि ( सूर्य) के पुत्र कश्यप ही विवस्वान के पुत्र मनु वैवस्वत कहलाए। इनको ही अथर्वा के नाम से जाना जाता है। इन्हे ही अंगिरा के नाम से जाना जाता हैं। वेदों में अंगिरा व अथर्वा को पिता तुल्य ब्रहस्पति कहा गया है।अथर्वा व अंगिरा को वेदों में भाई भाई कहा है।
अंगिरा ऋषि को जब सृष्टि नहीं बनी थी तो विरुप ऋषि कहा गया है और जब सृष्टि बन गई तो इन्हे ही विश्वरूप कहा गया है। ऋ० ८,४३-४४ में विरुप अंगिरस के नाम से इनको ऋषित्व प्राप्त हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि -
१- प्रजापति व विश्वकर्मा देव व विराट पुरुष का जन्म सर्व प्रथम हुआ था।( अर्थात ये एक ही थे, एक ही देव या मनुष्य के नाम थे)
२- प्रजापति, विश्वकर्मा, अथर्वागिरस,, ब्रहस्पति को विश्व के प्रथम याज्ञिक बताया है।। ( अर्थात ये एक ही थे)
३- विश्वकर्मा , प्रजापति व ब्रहस्पतिको ब्रह्मा कहा गया है। ( अर्थात तीनों एक ही देव या मनुष्य थे,। ये पहले ब्रह्मा थे, आदि ब्रह्मा।)
४- विश्वकर्मा व अथर्वा ने इन्द्र के लिए चमस बनाया था। ( अर्थात दोनों एक ही थे)
५- विश्वकर्मा की पुत्री सूर्या व प्रजापति की सुता दक्षिणा ( सावित्री, सूर्या) थी।( अर्थात दोनों एक ही के नाम थे।
६- विश्वकर्मा, ब्रहस्पति अथर्वा ने इन्द्र के लिए वज्र का निर्माण किया था।( ये एक ही देव या मनुष्य थे)
अब जो वंश चला था वह मनु से चला था। स्वयंभु मनु के पुत्र सूर्य व सूर्य के इच्छवा थे। इच्छवा से इच्छवाकु वंश चला। जो आगे चलकर सूर्य वंश, चन्द्र वंश व रघु वंश कहलाया था।
ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी ने प्रजापति का उद्दालक गोत्र बताया है, उद्दालक गोत्र का निकास व्रेणकेतु ऋषि गोत्र से उत्पन्न हुआ, व्रेणकेतु गोत्र का निकास वायु मुनि से हुआ था। वह ब्रह्मा के पुत्र अथर्वा से हुआ था ( पुराणों में वायु विश्वकर्मा को बताया है) भारद्वाज ऋषि से जब साकल्य मुनि ने अपनेउनके गोत्र के विषय में पूछा गया तो उन्होंने वर्णन किया- भारद्वाज गोत्र का निकास हरितत गोत्र से हुआ, हरितत गोत्रों का निकास मानो अंगिरस से हुआ और अंगिरस गोत्रों का निकास ब्रह्मा के पुत्र अथर्वा से हुआ है। पुराणों में भी हरितत गोत्रों का वर्णन पाया जाता है। उद्दालक गोत्र का निकास हरितत गोत्र से हुआ, हरितत गोत्र का निकास अंगिरस से हुआ।( ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी, महर्षि विश्वामित्र का धनुर्याग, पृष्ठ २३ पर)
विष्णु पुराण अध्याय २ में इच्छवाकु वंश का वर्णन है। जिसमे नाभग के पुत्र, अम्बरीष, अम्बरीष के पुत्र विरू , विरुप से पृषदश्र्वका जन्म हुआ तथा उससे रथितर हुआ। रथितर के वंशज क्षत्रिय संतान होते हुए भी अंगिरस कहलाए अतः वे क्षेत्रोपेत ब्राह्मण कहलाए। इच्छवाकु कुल के पुरोहित वशिष्ठ हुए थे।
विष्णु पुराण अध्याय तीन में वर्णन है कि मान्धाता के पुत्र अम्बरीष, अम्बरीष के युवनाष्व नामक पुत्र हुए। उससे हरीत हुआ जिससे अंगिरा- गोत्रिय हरितगण हुए।
अध्याय ५ में इच्छवाकू वंश के निमि की संतान का जिक्र है।
(ये सूर्य वंश कहलाया) सूर्य वंश के बाद पुराणों के अनुसार चन्द्र वंश आया। चन्द्र वंश के बाद रघु वंश इसी कुल का नाम पड़ा। कुछ लोग आज भी है जो अपनी निकासी, अंगिरा ऋषि या अंगिरस कुल से मानते हैं। कुछ विश्वकर्मा ऋषि से निकासी मानते हैं, कुछ प्रजापति ऋषि से कुछ कश्यप ऋषि से कुछ दधीचि ऋषि से अपनी निकासी बताते हैं जिससे ये परंपरा आज भी चली अा रही है। लेकिन कुछ लोग अपना वंश मनु से ना जोड़कर नए नए वंशो से जोड़ते हैं। राम चन्द्र जी व गौतम बुद्ध का भी इच्छवाकु वंश ही था। बुद्ध व महावीर नास्तिक बन गये औरउन्होने इस वंश को नष्ट कर दिया था।
अतः भारत या संसार में एक ही कुल था इच्छवाकु वंश। जिसकी निकासी अथर्वा ( त्वष्टा ) से हुई थी। इसी लिए आदि शंकरचार्य ने जब अपना परिचय दिया था तो उन्होंने कहा था कि मै त्वष्टा कुल का विश्वकर्मा ब्राह्मण हूं। आदि शंकराचार्य त्वष्टा वंश के विश्वकर्मा ब्राह्मण थे। प्रमाण-१-( शंकर विजय ग्रंथ) २-(आचार्य शंकर [ बंगला भाष्य] लेखक स्वामी अपूर्णा नन्द)
३-(भविष्य म०पु०/खण्ड २,अ०१८,७८-८१) ४-( विश्वकर्मा एंड हिज डिसेन्डेन्टस) ५- ( जा०ब्रा० निर्देशिका पृष्ठ १०६)
प्रथम मन्वन्तर के मनु स्वयंभु ( अथर्वा ही थे और सातवे मन्वन्तर के मनु , मनु वैवस्वत है। ये एक ही कुल आज तरह तरह से बटा हुआ है।
वेदों का एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि प्रत्येक मन्वंतर के मनु से ही मनुष्यों की सृष्टि होती हैं। मनु ही मनुष्यों के जन्म दाता है लेकिन आजकल कोई कहता है कि हम परशुराम के वंशज है जबकि परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि थे, जमदग्नि ऋषि के पिता भृगु थे। ये जमदग्नि व भृगु से निकासी नहीं मानते जबकि वे परशुराम से पहले उत्पन्न हुए व महान ऋषि थे। वे मनु से तो उत्पत्ति मानते ही नहीं बल्कि परशु राम के पिता व दादा से भी नहीं मानते। इसी प्रकार आज राजपूत अपनी उत्पत्ति पृथ्वी राज चौहान से मानते हैं जबकि भारत में एक ही वंश इच्छवाकु वंश आदि काल से है, ये इसे अपना वंश नहीं बताते। इसी प्रकार बहुत से लोग है जिनको अपने वंशो का नहीं पता है। अब तो ठीक कर लो। जिनको अपने वंश का नहीं पता है, उनका भी सही कराओ ताकि सामाजिक असंतोष दूर हो जाय वे एक भारत बन जाए, श्रेष्ठ भारत बन जाए। ये कार्य वेदों की तरफ लौट कर ही संभव है।
यहां के हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, मुस्लिम व ईसाई एक ही कुल के है। एक ही कुल इच्छवाकु पहले सूर्य वंश के नाम से जाना गया फिर केतु वंश, फिर चन्द्र वंश, फिर रघु वंश से जाना गया। अभी रघु वंश चल रहा है जो रघु महाराज से शुरू हुआ था।
कुछ पुराणों में लिखा है- श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव - त्वष्टा विश्वकर्मा पुत्री कशेरू- पति भगवान कृष्ण के पिता थे। प्रमाण- १-(भागवत म ० पु ०१०/५९/४२) २- (महाभारत सभा पर्व अ०३८, कृष्ण लीला पृ०८०५,८१०,८११)
त्वष्टा पुत्री कशेरू पति श्रीकृष्ण के भ्राता बलराम भी जामाता तुल्य थे। १- भागवत म ० पु ०१०/१/८,२४) २- महाभारत स ० पर्व, अध्याय ३८)
आदि काल में प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री वर्हिष्मती के पति सम्राट प्रियव्रत के भ्राता उत्तानपाद थे। जिनके पुत्र ध्रुव हुवे। ( भागवत महा पुराण)
स्वायंभू मनु( प्रथम मन्वंतर के मनु) ये प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री वर्हिष्मती के पति सम्राट प्रियव्रत के पिता थे।( भागवत महा ० पुराण,५/१/२४)
मरीचि पुत्र कश्यप ऋषि- ये प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के पति विवस्वान ( सूर्य) के पिता थे। (भागवत महा पुराण ४/१/१ व ५/१/२४,)
वैवस्वत मनु- संज्ञा के पुत्र वैवस्वत ( श्राध्देव) सातवे मन्वंतर के मनु है।( मार्कण्डेय पुराण ७४/१-२,७३/५८,१०३,३-४ तथा अ०१०५,/१४,२७,)( विष्णु महा पुराण३/२/२,)
महाराजा प्रियव्रत की कन्या ( प्रजापति विश्वकर्मा की नातिन) उर्जस्वी का विवाह शुक्राचार्य से हुआ था। जिनसे शुक्र कन्या देवयानी का जन्म हुआ।( भा ० म ० पुराण,५/१/३४,) ( शुक्राचार्य की कन्या देवयानी के पुत्र यदु व द्रुह हुए थे)
ऋषभ देव- विश्वरूप विश्वकर्मा के दामाद व सम्राट भरत के पिता थे।(भागवत म ० पुराण, ५/७/१-३)
प्रजापति विश्वकर्मा के दोहित्र ( नाती) तथा भगवान सूर्य के पुत्र यमराज से ?
0 Comments