माता सीता और अग्नी परीक्षा

आजकल कुछ विमूढ़, मतिहीन लोग माता सीता के बारे में निंदनीय तथा मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम के बारे में निराधार बातें कहने लगे हैं। कुछ दिन पूर्व इसी पृष्ठ पर एक साहब ने तो प्रभु श्री राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया। 
ये वो लोग हैं जिन्होंने रामायण या रामचरित मानस का पठन तो क्या ढंग से इन ग्रंथों को खोल कर भी नहीं देखा और बातें करते हैं ब्रह्म और ब्रह्मज्ञान की। 
सीता हरण तो बहुत दूर की बात है, उन जैसी पतिव्रता नारी को परपुरूष द्वारा छूना तक असम्भव था। उनके सतीत्व में इतना बल था कि अगर कोई भी परपुरूष उनको स्पर्श करता तो तत्काल भस्म हो जाता। रावण ने जिनका हरण किया वो वास्तविक माता सीता ना होकर उनकी प्रतिकृति छाया मात्र थी। इसके पीछे एक गूढ़ रहस्य है, जिसका महर्षि बाल्मीकि कृत रामायण व गोस्वामी तुलसी कृत रामचरित मानस में स्पष्ट वर्णन है…

पंचवटी पर निवास के समय जब श्री लक्ष्मण वन में लकड़ी लेने गये थे तो प्रभु श्री राम ने माता जानकी से कहा-

“तब तक करो अग्नि में वासा। जब तक करुं निशाचर नाशा॥”

प्रभु जानते थे कि रावण अब आने वाला है, इसलिए उन्होंने कहा- हे सीते अब वक्त आ गया है, तुम एक वर्ष तक अग्नि में निवास करो, तब तक मैं इस राक्षसों का संहार करता हूँ।

यह रहस्य स्वयं लक्ष्मण भी नहीं जानते थे..

“लक्ष्मनहु ये मरम न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥”

इसीलिए रावण वध के पश्चात जब श्री राम ने लक्ष्मन से अग्नि प्रज्वलित करने के लिए कहा कि सीता अग्नि पार करके ही मेरे पास आयेंगी.. तो सुमित्रानंदन क्रोधित हो गये कि भइया आप मेरी माता समान भाभी पर संदेह कर रहे हैं मैं ऐसा नहीं होने दूँगा..

तब राम ने लक्ष्मण को सारा रहस्य बताया और कहा हे लक्ष्मण सीता और राम तो एक ही हैं.. सीता पर संदेह का अर्थ है मैं स्वयं पर संदेह कर रहा हूँ। राम ने छायारुपी सीता की बात बताई और कहा कि रावण वास्तविक सीता को अगर छू भी लेता तो तत्काल भस्म हो जाता…

इसके बाद स्वयं माता जानकी ने लक्ष्मण से कहा…
“लक्ष्मन हो तुम धर्म के नेगी। पावक प्रगट करो तुम वेगी॥”

हे लक्ष्मण अगर तुमने धर्म का पालन किया है तो शीघ्रता से अग्नि उत्पन्न करो… उसके बाद छायारुप माँ जानकी अग्नि में प्रविष्ट हो गई और वास्तविक सीता माँ श्री राम के पास आ गई..॥

वैसे तो उपरोक्त वृतांत रामचरितमानस की चौपाइयों को आधार बनाकर वर्णित किया गया है, फिर भी बहुत से कुछ अधिक ही ज्ञानी या कहूँ मतिमूढ, नकली(छायारुप) सीता माता की छाया वाली बात पर विश्वास नहीं करेंगे… 

वास्तव में, एक क्षेत्र ऐसा है जिसके शीश पर इन परमोन्नत तकनीकों के आविष्कारों का सेहरा बंधा है। यह क्षेत्र है- अध्यात्म ज्ञान अथवा वैदिक विज्ञान का।अध्यात्म- पोषित हमारे संत-सत्गुरु और प्राचीन कालीन ऋषिगण इन विलक्षण तकनीकों के कुशल आविष्कारक एवं अनुभवी रहे हैं।

वे अपनी देह को इच्छानुसार अदृश्य और प्रकट- वह भी मनचाही गिनती में कई स्थानों पर एक साथ करते रहे हैं।त्रेताकाल के एक बहु-चर्चित देवी सीता की अग्नि-परीक्षा का प्रसंग इसका उदाहरण है, वर्णानानुसार देवी-सीता के लंका से लौटने पर श्री राम ने उन्हें ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया।

रूखे वचन कहकर उन्हें अपनी चारित्रिक विशुधता प्रमाणित करने को कहा। देवी सीता ने तुरंत इस चुनौती को स्वीकार किया और प्रचण्ड अग्नि से गुज़रकर ‘अग्नि परीक्षा’ दी। यह ऐतिहासिक दृष्टांत विद्वानों, समाजवादियों, खासकर तथा-कथित नारी-संरक्षकों के लिए सदा से विवाद का विषय रहा है। वे इसे नारी की अस्मिता के प्रति घोर अन्याय मानते आए हैं।

ऐसा केवल इसलिए है, क्यूँकि वे इस परीक्षा के तल में छिपे सत्य को नहीं जानते। दरअसल यह लीला प्रभु श्रीराम की है। जिसकी भूमिका सीता हरण से पहले ही रची जा चुकी थी।

अध्यात्म रामायाण (अरण्य काण्ड, सप्तम सर्ग) में स्पष्ट रूप से वर्णित है- अथ रामः अपि — शुभे अर्थात रावण के षड़यंत्र को समझ, प्रभु श्री राम देवी सीता से एकांत में कहते हैं- ‘है शुभे! मैं जो कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। रावण तुम्हारे पास भिक्षु रूप में आएगा। अतः तुम अपने समान आकृति वाली प्रतिबिम्ब देह कुटी में छोड़कर अग्नि में विलीन हो जाओ। एक वर्ष तक वहीं अदृश्य रूप में सुरक्षित वास करो। रावण वध के पश्चात्त तुम मुझे अपने पूर्ववत स्वरुप में पा लोगी।’

आगे (अरण्य काण्ड २३/२) में लिखा है कि प्रभु का यह सुझाव पाकर श्री सीता जी अग्नि में अदृश्य हो गयी व अपनी छायामुर्ति कुटी में पीछे छोड़ गयीं-

माँ सीता के इस वास्तविक स्वरुप को पुनः प्राप्त करने के लिए ही अग्नि-परीक्षा हुई थी। सो, यही अग्नि-परीक्षा के पीछे की सच्ची वास्तविकता है।

विपत्ति काल में सतगुरु अपने दीक्षित शिष्यों की पुकार पर वे एक ही समय में विश्व के अनेकों भागों में समान रूप, रंग, गुण, कौशल व अभेद देह में प्रकट होते रहे हैं और अपना विरद निभाने के लिए आगे भी यूँ ही प्रकट होते रहेंगे।

माता सीता स्वयं में साक्षात चेतना-स्वरूपिणी -माँ भगवती थीं। उनके लिए प्रकृति के जड़- तत्त्वों से छेड़छाड़ करके एक प्रतिबिम्ब देह निर्मित कर्म दर्पण देखने के समान सहज था ।

सीता-हरण से पूर्व जब श्री राम ने देवी सीता को अपना प्रतिबिम्ब पीछे छोड़कर अग्नि में निवास करने को कहा , तो माता सीता ने तत्क्षण अग्नि प्रकट की। कदाचित यह कोई लौकिक अग्नि नहीं, वैश्वानर अग्नि ही थी। माता जानकी उसी अग्नि के संरक्षण में रही। उसी वैश्वानर अग्नि अथवा ब्रह्म-चेतना के, जो सकल सृष्टि के परमाणुओं की रक्षा करती है व जिसका आह्वान कर ऋषियों ने कहा- (ऋग्वेद १-१-१) – हे अग्नि स्वरूप ब्रह्म-चेतना! पिता स्वरुप में , अपनी संतान की तरह हमारी रक्षा करो। 

वाल्मीकि रामायण (युद्धकाण्ड सर्ग १२/७५ ) के प्रसंगानुसार 

एक वर्ष बाद … विजय बिगुल बजे और पुनर्मिलन की बेला आई। राघव ने एक विशेष कार्य के लिए निर्मित मायावत सीता को देखा और अग्नि-परीक्षा देने को कहा। 

रामचरित मानस के अनुसार -

सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥

भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत से फूल बरसाए। सीताजी (के असली स्वरूप) को पहिले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी भगवान्‌ उनको प्रकट करना चाहते हैं॥

इसी कारण करुणा के भंडार श्री रामजी ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे ।

प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥

भावार्थ:-प्रभु के वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र श्री सीताजी बोलीं- हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर्माचरण में सहायक) बनो और तुरंत आग तैयार करो॥

श्री सीताजी की विरह, विवेक, धर्म और नीति से सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मणजी के नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भर आया। वे हाथ जोड़े खड़े रहे। वे भी प्रभु से कुछ कह नहीं सकते॥

(युद्धकाण्ड सर्ग -१३ )- हे सर्वव्यापक! अति पावन! लोक साक्षी अग्नि !…स्पष्ट है, ये संबोधन लौकिक अग्नि के लिए नहीं हो सकते थे। अतः लौकिक अग्नि की आड़ मेंवैश्वानर-अग् -नि (ब्रह्मचेतना) पुनः सक्रिय हुई।

उसने सीता जी की प्रतिबिम्ब देह को बिखेर पुनः प्रकृति में मिला दिया। फिर वास्तविक देवी सीता को सुरक्षित रूप में श्री राम के समक्ष प्रकट किया।

श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥

भावार्थ:-प्रभु श्री रामजी का स्मरण करके और जिनके चरण महादेवजी के द्वारा वंदित हैं तथा जिनमें सीताजी की अत्यंत विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपति की जय बोलकर जानकीजी ने चंदन के समान शीतल हुई अग्नि में प्रवेश किया। प्रतिबिम्ब (सीताजी की छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलंक प्रचण्ड अग्नि में जल गए। प्रभु के इन चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाश में खड़े देखते हैं॥

लोक साक्षी भगवान अग्नि देव वास्तविक जानकी को पिता के समान गोद में बिठाए हुए प्रकट हुए और रघुनाथ जी से बोले- मेरे पितास्वरूप संरक्षण में सौंपी हुई जानकी को पुनः ग्रहण कीजिये। यह वचन सुनकर श्री राम ने अत्यंत प्रसन्नता से जानकी जी को स्वीकार कर लिया।

धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥

भावार्थ:-तब अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में और जगत में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीताजी) का हाथ पकड़ उन्हें श्री रामजी को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु भगवान्‌ को लक्ष्मी समर्पित की थीं। वे सीताजी श्री रामचंद्रजी के वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यंत ही सुंदर है। मानो नए खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो॥

उसी क्षण ब्रह्मा, महेश आदि देवताओं ने आकाश से फूल बरसाए। वह प्रतिबिंबरुपिणी -सीता जिस कार्य के लिए रची गयी थी, उसे पूरा करके पुनः अदृश्य हो गयी।

परंतु कुटिल दृष्टिकोण रखने वालों ने ,स्वयं को अधिक बुद्धिमान समझने वालों ने, दूसरों के धर्म पर जानबूझ कर कुठाराघात करने वाले ओछी मानसिकता वालों ने उस काल से आज तक सदैव कभी सीता पर कलंक, तो कभी राम पर आक्षेप ही लगाए।

जिस प्रभु राम के अस्तित्व को आंख पर पट्टी बांधे हुए केवल सबूतों और गवाहों पर ही विश्वास करने वाला भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी मान चुका है एसे मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम की प्रमाणिकता और चरित्र पर संदेह करने वाले लोगों को देखकर यह यकीन हो जाता है कि दानव वंश अभी भी जीवित है।। 

लेखक की ओर से - इस लेख में लेखक के अपने विचारों के साथ काफी संदर्भ रामचरित मानस और वाल्मीकि रामायण से लिए गये हैं और कोशिश की गयी है कि मूल ग्रंथ के अर्थों में किसी तरह कि बदलाव न किया जाए।  परंतु संयोगवश या अनजाने में किसी भी तरह की त्रुटिओं एवं भूलों के लिए लेखक क्षमा प्रार्थी हैं ।

🚩जय सिया राम🚩

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