गिता

श्रीमदभगवत महापुराण -  वैवाहरिक ज्ञान माला


न तद्दानं प्रशसन्ति येन वृतिविृपद्यते।
दानं यज्ञस्तप: कर्म कोले वृत्तिमतो यत:।।
(८।  १९।  ३६ )

विद्वान पुरुष उस दान की प्रशंसा नहीं करते, जिसके बाद जीवन निर्वाह के लिए कुछ बचे ही  नहीं। जिसका जीवन निर्वाह ठीक ठाक  चलता है - वही संसार में दान, यज्ञ तप और परोपकार के कर्म कर सकता है

२.

धर्माय यशसे थार्य  कामाय स्वजनाय च ।
पञ्चधा विभाजीनवत्त महापुत्र च मोदते ।।
(८।  १९।  ३७  )

जो मनुष्य अपने धन को पांच भागों में बाँट देता है - कुछ धर्म के लिए, कुछ यश के लिए, कुछ धन की अभिवृद्धि के लिए, कुछ भोगों के लिए और कुछ अपने स्वजनों के लिए - वही इस लोक और परलोक दोनों में ही सुख पाता  है। 

३.

अर्यो  पिഽही सन्धेया: सति  कार्यार्थ  गौरेथे ।
अहिमुशक वद देवा ह्यार्थसय पदवीं गते ।।
( ८ । ६ । २०)

कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओं से भी मेल मिलाप कर लेना चाहिए।  यह बात अवश्य है की काम बन जाने पर उनके साथ सांप और चूहे वाला व्यवाहर* कर सकते हैं। 

* किसी मदारी की पिटारी में सांप तो पहले ही था , संयोगवश उसमे एक चूहा भी जा घुसा। चूहे के भयभीत होने पर सांप ने उसे प्रेम से समझाया की तुम पिटारी में छेद कर दो फिर हम दोनों भाग जायेंगे। सांप के विश्वास दिलाने पर चूहे ने पिटारी में छेद कर दिया।  पिटारी में छेद हो जाने पर सांप चूहे को निगल गया तथा पिटारी में से निकल भागा।

४.

लोभ: कार्यो न जातु रोष: कामस्तु वास्तुषु।
(८ । ६ । २५)

पहले तो किसी वस्तु के  लिए कामना करनी ही नहीं चाहिए परन्तु यदि कामना हो जाये और वह पूरी ना हो तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिए

५.

न सम्भम्रेण  सिध्यन्ति सर्वेડथर्रा:  सांत्वया  यथा। 
(८ । ६ । २४)

शांति से सब काम बन जाते हैं , क्रोध करने से कुछ नहीं होता। 

६.

इंद्रियाणि मन: प्राण आत्मा धर्मो धृतिमृत्ति:।
ह्रीं श्रीस्तेज: स्मृति: सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना।।

विमुञ्चयति यदा कामनांमानवो मानसी स्थित्तान ।
तह्रयोव पुण्डरीकाक्ष भगवतत्वाय कल्पते।।
(७ ।१०।८, ९ )  

ह्रदय में किसी भी कामना के उदय होते ही इन्द्रिय , मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री तेज, स्मृति और सत्य - यह सब के सब नष्ट हो जाते हैं।  जिस समय मनुष्य अपने मन में रहने वाली कामनाओं का परित्याग कर देता है उस समय वह भगवत्स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। 

७.

तृष्णया भव वाहिन्या  योगये: कामयेरपूरया।
कर्माणि कार्यमाणोડहं नानायोनिषु योजित: 
(७।  १३। २३)

तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छा अनुसार भोगों के प्राप्त होनेपर भी पूरी नहीं होती। उसी के कारण जन्म मरण के चक्कर में भटकना पड़ता है।  तृष्णा ने ना  जाने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाए और उनके कारण ना जाने कितनी योनिओं को मुझे भोगना पड़ा। 

९.

नालं  द्विजत्वं  देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजा: ।
प्रीणनाय  मुकुन्दस्य न वृतं न बहुज्ञयता।।
(७। ७।  ५१)

भगवान को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से संपन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है।  भगवन केवल निष्काम प्रेम- भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।  बाकी सब तो विडंबना मात्र हैं।

१०.

हरिः सर्वेषु भूतेषु भगवानास्त ईश्वरः ।
इति भूतानि मनसा कामैस्त्यै साधू मान्येत ।।

एवं निर्जितषडवर्गे: क्रियते भक्तिरीश्वरे। 
वासुदेव भगवति  यया संलभते रातिम ।।

(७।  ७।  ३२-३३)

सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि समस्त प्राणियों में विराजमान हैं - ऐसी भावना यथाशक्ति सभी प्राणियों की इच्छा पूर्ण करे और ह्रदय से उनका सम्मान करे। 
काम, क्रोध, लोभ, मद  और मत्सर इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग भगवान् की साधन भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्ति के द्वारा भगवान् के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है

११.
नैतत्ख्लायोपदिषेन्नाविनिताय  काहिरचित।
न स्तबध्याय न भिन्नाय नैव धर्मध्वजाय च।।

न लोलुपायोप दिशेनन  गृहरूढ़चेतसे। 
नाभक्ताय च में जातु न मद्भक्तद्विषामपि ।।
(३। ३२। ३९-४० )

दुष्ट, दुर्विनीत, दुराचारी और दम्भी पुरुषों को ज्ञानोपदेश नहीं सुनाना चाहिए।  जो विषयलोलुप हो, गृहासक्त हो, भगवन का भक्त ना हो तथा उसके भक्तों से द्वेष करने वाला हो, उसे भी ज्ञानभक्ति का उपदेश ना करे। 
     
१२.

यतो प्राप्य न्यवर्तन्त वाचश्य मनसा सह। 
अहं  चानय इमे देवास्तस्मै  भगवते नमः ।।
(३।  ६। ४०)

जहाँ ना पहुँच कर मन के सहित वाणी भी लौट आती है  तथा जिनका पार पाने में इन्द्रयाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन श्री भगवान् को हम नमस्कार करते है

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।

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